आज की आर्टिकल में हम आईपीसी की सभी धारा को हिंदी में बताने वाले है की कौन सी धारा कब और कहाँ इस्तेमाल की जाती है, तो चलिए स्टार्ट करते है। इस आर्टिकल का इस्तेमाल नोट्स बनाने में भी किया जा सकता है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 [(Indian Penal Code, 1860 (IPC)]
आईपीसी, 1860 (भारतीय दंड संहिता) एक व्यापक कानून है जो भारत में आपराधिक कानून के वास्तविक पहलुओं को
शामिल करता है। यह अपराधों को बताता है और उनमें से प्रत्येक के लिए सजा और
जुर्माना बताता है।
- धारा 1 – संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार
- धारा 2 – भारत के भीतर किए गए अपराधों का दण्ड।
- धारा 3 – भारत से परे किए गए किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अपराधों का दण्ड।
- धारा 4 – राज्यक्षेत्रातीत / अपर देशीय अपराधों पर संहिता का विस्तार।
- धारा 5 – कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना।
- धारा 6 – संहिता में की परिभाषाओं का अपवादों के अध्यधीन समझा जाना।
- धारा 7 – एक बार स्पष्टीकॄत वाक्यांश का अभिप्राय।
- धारा 8 – लिंग
- धारा 9 – वचन
- धारा 10 – पुरुष। स्त्री।
- धारा 11 – व्यक्ति
- धारा 12 – जनता / जन सामान्य
- धारा 13 – क्वीन की परिभाषा
- धारा 14 – सरकार का सेवक।
- धारा 15 – ब्रिटिश इण्डिया की परिभाषा
- धारा 16 – गवर्नमेंट आफ इण्डिया की परिभाषा
- धारा 17 – सरकार।
- धारा 18 – भारत
- धारा 19 – न्यायाधीश।
- धारा 20 – न्यायालय
- धारा 21 – लोक सेवक
- धारा 22 – चल सम्पत्ति।
- धारा 23 – सदोष अभिलाभ / हानि।
- धारा 24 – बेईमानी करना।
- धारा 25 – कपटपूर्वक
- धारा 26 – विश्वास करने का कारण।
- धारा 27 – पत्नी, लिपिक या सेवक के कब्जे में सम्पत्ति।
- धारा 28 – कूटकरण।
- धारा 29 – दस्तावेज।
- धारा 30 – मूल्यवान प्रतिभूति।
- धारा 31 – बिल
- धारा 32 – कार्यों को दर्शाने वाले शब्दों के अन्तर्गत अवैध लोप शामिल है।
- धारा 33 – कार्य
- धारा 34 – सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्य
- धारा 35 – जबकि ऐसा कार्य इस कारण आपराधिक है कि वह आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया है
- धारा 36 – अंशत: कार्य द्वारा और अंशत: लोप द्वारा कारित परिणाम।
- धारा 37 – कई कार्यों में से किसी एक कार्य को करके अपराध गठित करने में सहयोग करना।
- धारा 38 – आपराधिक कार्य में संपॄक्त व्यक्ति विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकेंगे
- धारा 39 – स्वेच्छया।
- धारा 40 – अपराध।
- धारा 41 – विशेष विधि।
- धारा 42 – स्थानीय विधि
- धारा 43 – अवैध
- धारा 44 – क्षति
- धारा 45 – जीवन
- धारा 46 – मॄत्यु
- धारा 47 – जीवजन्तु
- धारा 48 – जलयान
- धारा 49 – वर्ष या मास
- धारा 50 – धारा
- धारा 51 – शपथ।
- धारा 52 – सद्भावपूर्वक।
- धारा 53 – दण्ड।
- धारा 54 – मॄत्यु दण्डादेश का रूपांतरण।
- धारा 55 – आजीवन कारावास के दण्डादेश का लघुकरण
- धारा 56 – य़ूरोपियों तथा अमरीकियों को दण्ड दासता की सजा।
- धारा 57 – दण्डावधियों की भिन्नें
- धारा 58 – निर्वासन से दण्डादिष्ट अपराधियों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए जब तक वे निर्वासित न कर दिए जाएं
- धारा 59 – कारावास के बदले निर्वासनट
- धारा 60 – दण्डादिष्ट कारावास के कतिपय मामलों में सम्पूर्ण कारावास या उसका कोई भाग कठिन या सादा हो सकेगा।
- धारा 61 – सम्पत्ति के समपहरण का दण्डादेश।
- धारा 62 – मॄत्यु, निर्वासन या कारावास से दण्डनीय अपराधियों की बाबत सम्पत्ति का समपहरण ।
- धारा 63 – आर्थिक दण्ड/जुर्माने की रकम।
- धारा 64 – जुर्माना न देने पर कारावास का दण्डादेश
- धारा 65 – जब कि कारावास और जुर्माना दोनों आदिष्ट किए जा सकते हैं, तब जुर्माना न देने पर कारावास की अवधि
- धारा 66 – जुर्माना न देने पर किस भांति का कारावास दिया जाए।
- धारा 67 – आर्थिक दण्ड न चुकाने पर कारावास, जबकि अपराध केवल आर्थिक दण्ड से दण्डनीय हो।
- धारा 68 – आर्थिक दण्ड के भुगतान पर कारावास का समाप्त हो जाना।
- धारा 69 – जुर्माने के आनुपातिक भाग के दे दिए जाने की दशा में कारावास का पर्यवसान
- धारा 70 – जुर्माने का छह वर्ष के भीतर या कारावास के दौरान वसूल किया जाना। मॄत्यु सम्पत्ति को दायित्व से उन्मुक्त नहीं करती।
- धारा 71 – कई अपराधों से मिलकर बने अपराध के लिए दण्ड की अवधि।
- धारा 72 – कई अपराधों में से एक के दोषी व्यक्ति के लिए दण्ड जबकि निर्णय में यह कथित है कि यह संदेह है कि वह किस अपराध का दोषी है
- धारा 73 – एकांत परिरोध
- धारा 74 – एकांत परिरोध की अवधि
- [06/12, 17:39] Prem: धारा 75 – पूर्व दोषसिद्धि के पश्चात् अध्याय 12 या अध्याय 17 के अधीन कतिपय अपराधों के लिए वर्धित दण्ड
- धारा 76 – विधि द्वारा आबद्ध या तथ्य की भूल के कारण अपने आप के विधि द्वारा आबद्ध होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य।
- धारा 77 – न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य
- धारा 78 – न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य
- धारा 79 – विधि द्वारा न्यायानुमत या तथ्य की भूल से अपने को विधि द्वारा न्यायानुमत होने का विश्वास करने वाले व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य
- धारा 80 – विधिपूर्ण कार्य करने में दुर्घटना।
- धारा 81 – आपराधिक आशय के बिना और अन्य क्षति के निवारण के लिए किया गया कार्य जिससे क्षति कारित होना संभाव्य है।
- धारा 82 – सात वर्ष से कम आयु के शिशु का कार्य।
- धारा 83 – सात वर्ष से ऊपर किंतु बारह वर्ष से कम आयु के अपरिपक्व समझ के शिशु का कार्य
- धारा 84 – विकॄतचित व्यक्ति का कार्य।
- धारा 85 – ऐसे व्यक्ति का कार्य जो अपनी इच्छा के विरुद्ध मत्तता में होने के कारण निर्णय पर पहुंचने में असमर्थ है
- धारा 86 – किसी व्यक्ति द्वारा, जो मत्तता में है, किया गया अपराध जिसमें विशेष आशय या ज्ञान का होना अपेक्षित है
- धारा 87 – सम्मति से किया गया कार्य जिससे मॄत्यु या घोर उपहति कारित करने का आशय न हो और न उसकी संभाव्यता का ज्ञान हो
- धारा 88 – किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सम्मति से सद््भावपूर्वक किया गया कार्य जिससे मॄत्यु कारित करने का आशय नहीं है
- धारा 89 – संरक्षक द्वारा या उसकी सम्मति से शिशु या उन्मत्त व्यक्ति के फायदे के लिए सद््भावपूर्वक किया गया कार्य
- धारा 90 – सम्मति, जिसके संबंध में यह ज्ञात हो कि वह भय या भ्रम के अधीन दी गई है
- धारा 91 – ऐसे अपवादित कार्य जो कारित क्षति के बिना भी स्वतः अपराध है।
- धारा 92 – सहमति के बिना किसी व्यक्ति के फायदे के लिए सद्भावपूर्वक किया गया कार्य।
- धारा 93 – सद््भावपूर्वक दी गई संसूचना
- धारा 94 – वह कार्य जिसको करने के लिए कोई व्यक्ति धमकियों द्वारा विवश किया गया है
- धारा 95 – तुच्छ अपहानि कारित करने वाला कार्य
- धारा 96 – प्राइवेट प्रतिरक्षा में की गई बातें
- धारा 97 – शरीर तथा संपत्ति की निजी प्रतिरक्षा का अधिकार।
- धारा 98 – ऐसे व्यक्ति के कार्य के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जो विकॄतचित्त आदि हो
- धारा 99 – कार्य, जिनके विरुद्ध प्राइवेट
- धारा 100 – किसी की मॄत्यु कारित करने पर शरीर की निजी प्रतिरक्षा का अधिकार कब लागू होता है।
- धारा 101 – मॄत्यु से भिन्न कोई क्षति कारित करने के अधिकार का विस्तार कब होता है।
- धारा 102 – शरीर की निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बना रहना।
- धारा 103 – कब संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मॄत्यु कारित करने तक का होता है
- धारा 104 – मॄत्यु से भिन्न कोई क्षति कारित करने तक के अधिकार का विस्तार कब होता है।
- धारा 105 – सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का प्रारंभ और बना रहना
- धारा 106 – घातक हमले के विरुद्ध प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार जब कि निर्दोष व्यक्ति को अपहानि होने की जोखिम है
- धारा 107 – किसी बात का दुष्प्रेरण
- धारा 108 – दुष्प्रेरक।
- धारा 108क – भारत से बाहर के अपराधों का भारत में दुष्प्रेरण
- धारा 109 – अपराध के लिए उकसाने के लिए दण्ड, यदि दुष्प्रेरित कार्य उसके परिणामस्वरूप किया जाए, और जहां कि उसके दण्ड के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
- धारा 110 – दुष्रेरण का दण्ड, यदि दुष्प्रेरित व्यक्ति दुष्प्रेरक के आशय से भिन्न आशय से कार्य करता है।
- धारा 111 – दुष्प्रेरक का दायित्व जब एक कार्य का दुष्प्रेरण किया गया है और उससे भिन्न कार्य किया गया है।
- धारा 112 – दुष्प्रेरक कब दुष्प्रेरित कार्य के लिए और किए गए कार्य के लिए आकलित दण्ड से दण्डनीय है
- धारा 113 – दुष्प्रेरित कार्य से कारित उस प्रभाव के लिए दुष्प्रेरक का दायित्व जो दुष्प्रेरक द्वारा आशयित से भिन्न हो।
- धारा 114 – अपराध किए जाते समय दुष्प्रेरक की उपस्थिति।
- धारा 115 – मॄत्युदण्ड या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराध का दुष्प्रेरण – यदि दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप अपराध नहीं किया जाता।
- धारा 116 – कारावास से दण्डनीय अपराध का दुष्प्रेरण – यदि अपराध न किया जाए।
- धारा 117 – सामान्य जन या दस से अधिक व्यक्तियों द्वारा अपराध किए जाने का दुष्प्रेरण।
- धारा 118 – मॄत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध करने की परिकल्पना को छिपाना
- धारा 119 – किसी ऐसे अपराध के किए जाने की परिकल्पना का लोक सेवक द्वारा छिपाया जाना, जिसका निवारण करना उसका कर्तव्य है
- धारा 120 – कारावास से दण्डनीय अपराध करने की परिकल्पना को छिपाना।
- धारा 120क – आपराधिक षड््यंत्र की परिभाषा
- धारा 120ख – आपराधिक षड््यंत्र का दंड
- धारा 121 – भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना या युद्ध करने का प्रयत्न करना या युद्ध करने का दुष्प्रेरण करना।
- धारा 121क – धारा 121 द्वारा दंडनीय अपराधों को करने का षड््यंत्र
- धारा 122 – भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने के आशय से आयुध आदि संग्रहित करना।
- धारा 123 – युद्ध करने की परिकल्पना को सुगम बनाने के आशय से छिपाना।
- धारा 124 – किसी विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग करने के लिए विवश करने या उसका प्रयोग अवरोधित करने के आशय से राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि पर हमला करना
- धारा 124क – राजद्रोह
- धारा 125 – भारत सरकार से मैत्री संबंध रखने वाली किसी एशियाई शक्ति के विरुद्ध युद्ध करना
- धारा 126 – भारत सरकार के साथ शांति का संबंध रखने वाली शक्ति के राज्यक्षेत्र में लूटपाट करना।
- धारा 127 – धारा 125 और 126 में वर्णित युद्ध या लूटपाट द्वारा ली गई सम्पत्ति प्राप्त करना।
- धारा 128 – लोक सेवक का स्वेच्छया राजकैदी या युद्धकैदी को निकल भागने देना।
- धारा 129 – लोक सेवक का उपेक्षा से किसी कैदी का निकल भागना सहन करना।
- धारा 130 – ऐसे कैदी के निकल भागने में सहायता देना, उसे छुड़ाना या संश्रय देना
- धारा 131 – विद्रोह का दुष्प्रेरण या किसी सैनिक, नौसेनिक या वायुसैनिक को कर्तव्य से विचलित करने का प्रयत्न करना
- धारा 132 – विद्रोह का दुष्प्रेरण यदि उसके परिणामस्वरूप विद्रोह हो जाए।
- धारा 133 – सैनिक, नौसैनिक या वायुसैनिक द्वारा अपने वरिष्ठ अधिकारी जब कि वह अधिकारी अपने पद-निष्पादन में हो, पर हमले का दुष्प्रेरण।
- धारा 134 – हमले का दुष्प्रेरण जिसके परिणामस्वरूप हमला किया जाए।
- धारा 135 – सैनिक, नौसैनिक या वायुसैनिक द्वारा परित्याग का दुष्प्रेरण।
- धारा 136 – अभित्याजक को संश्रय देना
- धारा 137 – मास्टर की उपेक्षा से किसी वाणिज्यिक जलयान पर छुपा हुआ अभित्याजक
- धारा 138 – सैनिक, नौसैनिक या वायुसैनिक द्वारा अनधीनता के कार्य का दुष्प्रेरण।
- धारा 138क – पूर्वोक्त धाराओं का भारतीय सामुद्रिक सेवा को लागू होना
- धारा 139 – कुछ अधिनियमों के अध्यधीन व्यक्ति।
- धारा 140 – सैनिक, नौसैनिक या वायुसैनिक द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली पोशाक पहनना या प्रतीक चिह्न धारण करना।
- धारा 141 – विधिविरुद्ध जनसमूह।
- धारा 142 – विधिविरुद्ध जनसमूह का सदस्य होना।
- धारा 143 – गैरकानूनी जनसमूह का सदस्य होने के नाते दंड
- धारा 144 – घातक आयुध से सज्जित होकर विधिविरुद्ध जनसमूह में सम्मिलित होना।
- धारा 145 – किसी विधिविरुद्ध जनसमूह जिसे बिखर जाने का समादेश दिया गया है, में जानबूझकर शामिल होना या बने रहना
- धारा 146 – उपद्रव करना।
- धारा 147 – बल्वा करने के लिए दंड
- धारा 148 – घातक आयुध से सज्जित होकर उपद्रव करना।
- धारा 149 – विधिविरुद्ध जनसमूह का हर सदस्य, समान लक्ष्य का अभियोजन करने में किए गए अपराध का दोषी।
- धारा 150 – विधिविरुद्ध जनसमूह में सम्मिलित करने के लिए व्यक्तियों का भाड़े पर लेना या भाड़े पर लेने के लिए बढ़ावा देना।
- धारा 151 – पांच या अधिक व्यक्तियों के जनसमूह जिसे बिखर जाने का समादेश दिए जाने के पश्चात् जानबूझकर शामिल होना या बने रहना
- धारा 152 – लोक सेवक के उपद्रव / दंगे आदि को दबाने के प्रयास में हमला करना या बाधा डालना।
- धारा 153 – उपद्रव कराने के आशय से बेहूदगी से प्रकोपित करना
- धारा 153क – धर्म, मूलवंश, भाषा, जन्म-स्थान, निवास-स्थान, इत्यादि के आधारों पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता का संप्रवर्तन और सौहार्द्र बने रहने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कार्य करना।
- धारा 153ख – राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन, प्राख्यान–(
- धारा 154 – उस भूमि का स्वामी या अधिवासी, जिस पर ग़ैरक़ानूनी जनसमूह एकत्रित हो
- धारा 155 – व्यक्ति जिसके फायदे के लिए उपद्रव किया गया हो का दायित्व
- धारा 156 – उस स्वामी या अधिवासी के अभिकर्ता का दायित्व, जिसके फायदे के लिए उपद्रव किया जाता है
- धारा 157 – विधिविरुद्ध जनसमूह के लिए भाड़े पर लाए गए व्यक्तियों को संश्रय देना।
- धारा 158 – विधिविरुद्ध जमाव या बल्वे में भाग लेने के लिए भाड़े पर जाना
- धारा 159 – दंगा
- धारा 160 – उपद्रव करने के लिए दण्ड।
- धारा 161 से 165 – लोक सेवकों द्वारा या उनसे संबंधित अपराधों के विषय में
- धारा 166 – लोक सेवक द्वारा किसी व्यक्ति को क्षति पहुँचाने के आशय से विधि की अवज्ञा करना।
- धारा 166क – कानून के तहत महीने दिशा अवहेलना लोक सेवक
- धारा 166ख – अस्पताल द्वारा शिकार की गैर उपचार
- धारा 167 – लोक सेवक, जो क्षति कारित करने के आशय से अशुद्ध दस्तावेज रचता है।
- धारा 168 – लोक सेवक, जो विधिविरुद्ध रूप से व्यापार में लगता है
- धारा 169 – लोक सेवक, जो विधिविरुद्ध रूप से संपत्ति क्रय करता है या उसके लिए बोली लगाता है।
- धारा 170 – लोक सेवक का प्रतिरूपण।
- धारा 171 – कपटपूर्ण आशय से लोक सेवक के उपयोग की पोशाक पहनना या निशानी को धारण करना।
- धारा 171क – अभ्यर्थी, निर्वाचन अधिकार परिभाषित
- धारा 171ख – रिश्वत
- धारा 171ग – निर्वाचनों में असम्यक्् असर डालना
- धारा 171घ – निर्वाचनों में प्रतिरूपण
- धारा 171ङ – रिश्वत के लिए दण्ड
- धारा 171च – निर्वाचनों में असम्यक्
- धारा 171च – निर्वाचनों में असम्यक् असर डालने या प्रतिरूपण के लिए दण्ड
- धारा 171छ – निर्वाचन के सिलसिले में मिथ्या कथन
- धारा 171ज – निर्वाचन के सिलसिले में अवैध संदाय
- धारा 171झ – निर्वाचन लेखा रखने में असफलता
- धारा 172 – समनों की तामील या अन्य कार्यवाही से बचने के लिए फरार हो जाना
- धारा 173 – समन की तामील का या अन्य कार्यवाही का या उसके प्रकाशन का निवारण करना।
- धारा 174 – लोक सेवक का आदेश न मानकर गैर-हाजिर रहना
- धारा 175 – दस्तावेज या इलैक्ट्रानिक अभिलेख] पेश करने के लिए वैध रूप से आबद्ध व्यक्ति का लोक सेवक को 1[दस्तावेज या इलैक्ट्रानिक अभिलेख] पेश करने का लोप
- धारा 176 – सूचना या इत्तिला देने के लिए कानूनी तौर पर आबद्ध व्यक्ति द्वारा लोक सेवक को सूचना या इत्तिला देने का लोप।
- धारा 177 – झूठी सूचना देना।
- धारा 178 – शपथ या प्रतिज्ञान से इंकार करना, जबकि लोक सेवक द्वारा वह वैसा करने के लिए सम्यक् रूप से अपेक्षित किया जाए
- धारा 179 – प्रश्न करने के लिए प्राधिकॄत लोक सेवक को उत्तर देने से इंकार करना।
- धारा 180 – कथन पर हस्ताक्षर करने से इंकार
- धारा 181 – शपथ दिलाने या अभिपुष्टि कराने के लिए प्राधिकॄत लोक सेवक के, या व्यक्ति के समक्ष शपथ या अभिपुष्टि पर झूठा बयान।
- धारा 182 – लोक सेवक को अपनी विधिपूर्ण शक्ति का उपयोग दूसरे व्यक्ति की क्षति करने के आशय से झूठी सूचना देना
- धारा 183 – लोक सेवक के विधिपूर्ण प्राधिकार द्वारा संपत्ति लिए जाने का प्रतिरोध
- धारा 184 – लोक सेवक के प्राधिकार द्वारा विक्रय के लिए प्रस्थापित की गई संपत्ति के विक्रय में बाधा डालना।
- धारा 185 – लोक सेवक के प्राधिकार द्वारा विक्रय के लिए प्रस्थापित की गई संपत्ति का अवैध क्रय या उसके लिए अवैध बोली लगाना।
- धारा 186 – लोक सेवक के लोक कॄत्यों के निर्वहन में बाधा डालना।
- धारा 187 – लोक सेवक की सहायता करने का लोप, जबकि सहायता देने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो
- धारा 188 – लोक सेवक द्वारा विधिवत रूप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा।
- धारा 189 – लोक सेवक को क्षति करने की धमकी
- धारा 190 – लोक सेवक से संरक्षा के लिए आवेदन करने से रोकने हेतु किसी व्यक्ति को उत्प्रेरित करने के लिए क्षति की धमकी।
- धारा 191 – झूठा साक्ष्य देना।
- धारा 192 – झूठा साक्ष्य गढ़ना।
- धारा 193 – मिथ्या साक्ष्य के लिए दंड
- धारा 194 – मॄत्यु से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्धि कराने के आशय से झूठा साक्ष्य देना या गढ़ना।
- धारा 195 – आजीवन कारावास या कारावास से दण्डनीय अपराध के लिए दोषसिद्धि प्राप्त करने के आशय से झूठा साक्ष्य देना या गढ़ना
- धारा 196 – उस साक्ष्य को काम में लाना जिसका मिथ्या होना ज्ञात है
- धारा 197 – मिथ्या प्रमाणपत्र जारी करना या हस्ताक्षरित करना
- धारा 198 – प्रमाणपत्र जिसका नकली होना ज्ञात है, असली के रूप में प्रयोग करना।
- धारा 199 – विधि द्वारा साक्ष्य के रूप में लिये जाने योग्य घोषणा में किया गया मिथ्या कथन।
- धारा 200 – ऐसी घोषणा का मिथ्या होना जानते हुए सच्ची के रूप में प्रयोग करना।
- धारा 201 – अपराध के साक्ष्य का विलोपन, या अपराधी को प्रतिच्छादित करने के लिए झूठी जानकारी देना।
- धारा 202 – सूचना देने के लिए आबद्ध व्यक्ति द्वारा अपराध की सूचना देने का साशय लोप।
- धारा 203 – किए गए अपराध के विषय में मिथ्या इत्तिला देना
- धारा 204 – साक्ष्य के रूप में किसी 3[दस्तावेज या इलैक्ट्रानिक अभिलेख] का पेश किया जाना निवारित करने के लिए उसको नष्ट करना
- धारा 205 – वाद या अभियोजन में किसी कार्य या कार्यवाही के प्रयोजन से मिथ्या प्रतिरूपण
- धारा 206 – संपत्ति को समपहरण किए जाने में या निष्पादन में अभिगॄहीत किए जाने से निवारित करने के लिए उसे कपटपूर्वक हटाना या छिपाना
- धारा 207 – संपत्ति पर उसके जब्त किए जाने या निष्पादन में अभिगॄहीत किए जाने से बचाने के लिए कपटपूर्वक दावा।
- धारा 208 – ऐसी राशि के लिए जो शोध्य न हो कपटपूर्वक डिक्री होने देना सहन करना
- धारा 209 – बेईमानी से न्यायालय में मिथ्या दावा करना
- धारा 210 – ऐसी राशि के लिए जो शोध्य नहीं है कपटपूर्वक डिक्री अभिप्राप्त करना
- धारा 211 – क्षति करने के आशय से अपराध का झूठा आरोप।
- धारा 212 – अपराधी को संश्रय देना।
- धारा 213 – अपराधी को दंड से प्रतिच्छादित करने के लिए उपहार आदि लेना
- धारा 214 – अपराधी के प्रतिच्छादन के प्रतिफलस्वरूप उपहार की प्रस्थापना या संपत्ति का प्रत्यावर्तन
- धारा 215 – चोरी की संपत्ति इत्यादि के वापस लेने में सहायता करने के लिए उपहार लेना
- धारा 216 – ऐसे अपराधी को संश्रय देना, जो अभिरक्षा से निकल भागा है या जिसको पकड़ने का आदेश दिया जा चुका है।
- धारा 216क – लुटेरों या डाकुओं को संश्रय देने के लिए शास्ति
- धारा 216 – ऐसे अपराधी को संश्रय देना, जो अभिरक्षा से निकल भागा है या जिसको पकड़ने का आदेश दिया जा चुका है।
- धारा 216क – लुटेरों या डाकुओं को संश्रय देने के लिए शास्ति
- धारा 216ख – धारा 212, धारा 216 और धारा 216क में संश्रय की परिभाषा
- धारा 217 – लोक सेवक द्वारा किसी व्यक्ति को दंड से या किसी संपत्ति के समपहरण से बचाने के आशय से विधि के निदेश की अवज्ञा
- धारा 218 – किसी व्यक्ति को दंड से या किसी संपत्ति को समपहरण से बचाने के आशय से लोक सेवक द्वारा अशुद्ध अभिलेख या लेख की रचना
- धारा 219 – न्यायिक कार्यवाही में विधि के प्रतिकूल रिपोर्ट आदि का लोक सेवक द्वारा भ्रष्टतापूर्वक किया जाना
- धारा 220 – प्राधिकार वाले व्यक्ति द्वारा जो यह जानता है कि वह विधि के प्रतिकूल कार्य कर रहा है, विचारण के लिए या परिरोध करने के लिए सुपुर्दगी
- धारा 221 – पकड़ने के लिए आबद्ध लोक सेवक द्वारा पकड़ने का साशय लोप
- धारा 222 – दंडादेश के अधीन या विधिपूर्वक सुपुर्द किए गए व्यक्ति को पकड़ने के लिए आबद्ध लोक सेवक द्वारा पकड़ने का साशय लोप
- धारा 223 – लोक सेवक द्वारा उपेक्षा से परिरोध या अभिरक्षा में से निकल भागना सहन करना।
- धारा 224 – किसी व्यक्ति द्वारा विधि के अनुसार अपने पकड़े जाने में प्रतिरोध या बाधा।
- धारा 225 – किसी अन्य व्यक्ति के विधि के अनुसार पकड़े जाने में प्रतिरोध या बाधा
- धारा 225क – उन दशाओं में जिनके लिए अन्यथा उपबंध नहीं है लोक सेवक द्वारा पकड़ने का लोप या निकल भागना सहन करना
- धारा 225ख – अन्यथा अनुपबंधित दशाओं में विधिपूर्वक पकड़ने में प्रतिरोध या बाधा या निकल भागना या छुड़ाना
- धारा 226 – निर्वासन से विधिविरुद्ध वापसी।
- धारा 227 – दंड के परिहार की शर्त का अतिक्रमण
- धारा 228 – न्यायिक कार्यवाही में बैठे हुए लोक सेवक का साशय अपमान या उसके कार्य में विघ्न
- धारा 228क – कतिपय अपराधों आदि से पीड़ित व्यक्ति की पहचान का प्रकटीकरण
- धारा 229 – जूरी सदस्य या आंकलन कर्ता का प्रतिरूपण।
- धारा 230 – सिक्का की परिभाषा
- धारा 231 – सिक्के का कूटकरण
- धारा 232 – भारतीय सिक्के का कूटकरण
- धारा 233 – सिक्के के कूटकरण के लिए उपकरण बनाना या बेचना
- धारा 234 – भारतीय सिक्के के कूटकरण के लिए उपकरण बनाना या बेचना
- धारा 235 – सिक्के के कूटकरण के लिए उपकरण या सामग्री उपयोग में लाने के प्रयोजन से उसे कब्जे में रखना
- धारा 236 – भारत से बाहर सिक्के के कूटकरण का भारत में दुष्प्रेरण
- धारा 237 – कूटकॄत सिक्के का आयात या निर्यात
- धारा 238 – भारतीय सिक्के की कूटकॄतियों का आयात या निर्यात
- धारा 239 – सिक्के का परिदान जिसका कूटकॄत होना कब्जे में आने के समय ज्ञात था
- धारा 240 – उस भारतीय सिक्के का परिदान जिसका कूटकॄत होना कब्जे में आने के समय ज्ञात था
- धारा 241 – किसी सिक्के का असली सिक्के के रूप में परिदान, जिसका परिदान करने वाला उस समय जब वह उसके कब्जे में पहली बार आया था, कूटकॄत होना नहीं जानता था
- धारा 242 – कूटकॄत सिक्के पर ऐसे व्यक्ति का कब्जा जो उस समय उसका कूटकॄत होना जानता था जब वह उसके कब्जे में आया था
- धारा 243 – भारतीय सिक्के पर ऐसे व्यक्ति का कब्जा जो उसका कूटकॄत होना उस समय जानता था जब वह उसके कब्जे में आया था
- धारा 244 – टकसाल में नियोजित व्यक्ति द्वारा सिक्के को उस वजन या मिश्रण से भिन्न कारित किया जाना जो विधि द्वारा नियत है
- धारा 245 – टकसाल से सिक्का बनाने का उपकरण विधिविरुद्ध रूप से लेना
- धारा 246 – कपटपूर्वक या बेईमानी से सिक्के का वजन कम करना या मिश्रण परिवर्तित करना
- धारा 247 – कपटपूर्वक या बेईमानी से भारतीय सिक्के का वजन कम करना या मिश्रण परिवर्तित करना
- धारा 248 – इस आशय से किसी सिक्के का रूप परिवर्तित करना कि वह भिन्न प्रकार के सिक्के के रूप में चल जाए
- धारा 249 – इस आशय से भारतीय सिक्के का रूप परिवर्तित करना कि वह भिन्न प्रकार के सिक्के के रूप में चल जाए
- धारा 250 – ऐसे सिक्के का परिदान जो इस ज्ञान के साथ कब्जे में आया हो कि उसे परिवर्तित किया गया है
- धारा 251 – भारतीय सिक्के का परिदान जो इस ज्ञान के साथ कब्जे में आया हो कि उसे परिवर्तित किया गया है
- धारा 252 – ऐसे व्यक्ति द्वारा सिक्के पर कब्जा जो उसका परिवर्तित होना उस समय जानता था जब वह उसके कब्जे में आया
- धारा 253 – ऐसे व्यक्ति द्वारा भारतीय सिक्के पर कब्जा जो उसका परिवर्तित होना उस समय जानता था जब वह उसके कब्जे में आया
- धारा 254 – सिक्के का असली सिक्के के रूप में परिदान जिसका परिदान करने वाला उस समय जब वह उसके कब्जे में पहली बार आया था, परिवर्तित होना नहीं जानता था
- धारा 255 – सरकारी स्टाम्प का कूटकरण
- धारा 256 – सरकारी स्टाम्प के कूटकरण के लिए उपकरण या सामग्री कब्जे में रखना
- धारा 257 – सरकारी स्टाम्प के कूटकरण के लिए उपकरण बनाना या बेचना
- धारा 258 – कूटकॄत सरकारी स्टाम्प का विक्रय
- धारा 259 – सरकारी कूटकॄत स्टाम्प को कब्जे में रखना
- धारा 260 – किसी सरकारी स्टाम्प को, कूटकॄत जानते हुए उसे असली स्टाम्प के रूप में उपयोग में लाना
- धारा 261 – इस आशय से कि सरकार को हानि कारित हो, उस पदार्थ पर से, जिस पर सरकारी स्टाम्प लगा हुआ है, लेख मिटाना या दस्तावेज से वह स्टाम्प हटाना जो उसके लिए उपयोग में लाया गया है
- धारा 262 – ऐसे सरकारी स्टाम्प का उपयोग जिसके बारे में ज्ञात है कि उसका पहले उपयोग हो चुका है
- धारा 263 – स्टाम्प के उपयोग किए जा चुकने के द्योतक चिन्ह का छीलकर मिटाना
- धारा 263क – बनावटी स्टाम्पों का प्रतिषेघ
- धारा 264 – तोलने के लिए खोटे उपकरणों का कपटपूर्वक उपयोग
- धारा 265 – खोटे बाट या माप का कपटपूर्वक उपयोग
- धारा 266 – खोटे बाट या माप को कब्जे में रखना
- धारा 267 – खोटे बाट या माप का बनाना या बेचना
- धारा 268 – लोक न्यूसेन्स
- धारा 269 – उपेक्षापूर्ण कार्य जिससे जीवन के लिए संकटपूर्ण रोग का संक्रम फैलना संभाव्य हो
- धारा 270 – परिद्वेषपूर्ण कार्य, जिससे जीवन के लिए संकटपूर्ण रोग का संक्रम फैलना संभाव्य हो
- धारा 271 – करन्तीन के नियम की अवज्ञा
- धारा 272 – विक्रय के लिए आशयित खाद्य या पेय वस्तु का अपमिश्रण।
- धारा 273 – अपायकर खाद्य या पेय का विक्रय
- धारा 274 – औषधियों का अपमिश्रण
- धारा 275 – अपमिश्रित ओषधियों का विक्रय
- धारा 276 – ओषधि का भिन्न औषधि या निर्मिति के तौर पर विक्रय
- धारा 277 – लोक जल-स्रोत या जलाशय का जल कलुषित करना
- धारा 278 – वायुमण्डल को स्वास्थ्य के लिए अपायकर बनाना
- धारा 279 – सार्वजनिक मार्ग पर उतावलेपन से वाहन चलाना या हांकना
- धारा 280 – जलयान का उतावलेपन से चलाना
- धारा 281 – भ्रामक प्रकाश, चिन्ह या बोये का प्रदर्शन
- धारा 282 – अक्षमकर या अति लदे हुए जलयान में भाड़े के लिए जलमार्ग से किसी व्यक्ति का प्रवहण
- धारा 283 – लोक मार्ग या पथ-प्रदर्शन मार्ग में संकट या बाधा कारित करना।
- धारा 284 – विषैले पदार्थ के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण
- धारा 285 – अग्नि या ज्वलनशील पदार्थ के सम्बन्ध में उपेक्षापूर्ण आचरण।
- धारा 286 – विस्फोटक पदार्थ के बारे में उपेक्षापूर्ण आचरण
- धारा 287 – मशीनरी के सम्बन्ध में उपेक्षापूर्ण आचरण
- धारा 288 – किसी निर्माण को गिराने या उसकी मरम्मत करने के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण
- धारा 289 – जीवजन्तु के संबंध में उपेक्षापूर्ण आचरण।
- धारा 290 – अन्यथा अनुपबन्धित मामलों में लोक बाधा के लिए दण्ड।
- धारा 291 – न्यूसेन्स बन्द करने के व्यादेश के पश्चात् उसका चालू रखना
- धारा 292 – अश्लील पुस्तकों आदि का विक्रय आदि।
- धारा 2925क – विमर्शित और विद्वेषपूर्ण कार्य जो किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आशय से किए गए हों
- धारा 292क – Printing,etc, of grossly indecent or securrilous matter or matter intended for blackmail
- धारा 293 – तरुण व्यक्ति को अश्लील वस्तुओ का विक्रय आदि
- धारा 294 – अश्लील कार्य और गाने
- धारा 294क – लाटरी कार्यालय रखना
- धारा 295 – किसी वर्ग के धर्म का अपमान करने के आशय से उपासना के स्थान को क्षति करना या अपवित्र करना।
- धारा 296 – धार्मिक जमाव में विघ्न करना
- धारा 297 – कब्रिस्तानों आदि में अतिचार करना
- धारा 298 – धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के सविचार आशय से शब्द उच्चारित करना आदि।
- धारा 299 – आपराधिक मानव वध
- धारा 300 – हत्या
- धारा 301 – जिस व्यक्ति की मॄत्यु कारित करने का आशय था उससे भिन्न व्यक्ति की मॄत्यु करके आपराधिक मानव वध करना।
- धारा 302 – हत्या के लिए दण्ड
- धारा 303 – आजीवन कारावास से दण्डित व्यक्ति द्वारा हत्या के लिए दण्ड।
- धारा 304 – हत्या की श्रेणी में न आने वाली गैर इरादतन हत्या के लिए दण्ड
- धारा 304क – उपेक्षा द्वारा मॄत्यु कारित करना
- धारा 304ख – दहेज मॄत्यु
- धारा 305 – शिशु या उन्मत्त व्यक्ति की आत्महत्या का दुष्प्रेरण।
- धारा 306 – आत्महत्या का दुष्प्रेरण
- धारा 307 – हत्या करने का प्रयत्न
- धारा 308 – गैर इरादतन हत्या करने का प्रयास
- धारा 309 – आत्महत्या करने का प्रयत्न।
- धारा 310 – ठग।
- धारा 311 – ठगी के लिए दण्ड।
- धारा 312 – गर्भपात कारित करना।
- धारा 313 – स्त्री की सहमति के बिना गर्भपात कारित करना।
- धारा 314 – गर्भपात कारित करने के आशय से किए गए कार्यों द्वारा कारित मॄत्यु।
- धारा 315 – शिशु का जीवित पैदा होना रोकने या जन्म के पश्चात् उसकी मॄत्यु कारित करने के आशय से किया गया कार्य।
- धारा 316 – ऐसे कार्य द्वारा जो गैर-इरादतन हत्या की कोटि में आता है, किसी सजीव अजात शिशु की मॄत्यु कारित करना।
- धारा 317 – शिशु के पिता या माता या उसकी देखरेख रखने वाले व्यक्ति द्वारा बारह वर्ष से कम आयु के शिशु का परित्याग और अरक्षित डाल दिया जाना।
- धारा 318 – मॄत शरीर के गुप्त व्ययन द्वारा जन्म छिपाना
- धारा 319 – क्षति पहुँचाना।
- धारा 320 – घोर आघात।
- धारा 321 – स्वेच्छया उपहति कारित करना
- धारा 322 – स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना
- धारा 323 – जानबूझ कर स्वेच्छा से किसी को चोट पहुँचाने के लिए दण्ड
- धारा 324 – खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छया उपहति कारित करना
- धारा 325 – स्वेच्छापूर्वक किसी को गंभीर चोट पहुचाने के लिए दण्ड
- धारा 326 – खतरनाक आयुधों या साधनों द्वारा स्वेच्छापूर्वक घोर उपहति कारित करना
- धारा 326क – एसिड हमले
- धारा 326ख – एसिड हमला करने का प्रयास
- धारा 327 – संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की जबरन वसूली करने के लिए या अवैध कार्य कराने को मजबूर करने के लिए स्वेच्छापूर्वक चोट पहुँचाना।
- धारा 328 – अपराध करने के आशय से विष इत्यादि द्वारा क्षति कारित करना।
- धारा 329 – सम्पत्ति उद्दापित करने के लिए या अवैध कार्य कराने को मजबूर करने के लिए स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना
- धारा 330 – संस्वीकॄति जबरन वसूली करने या विवश करके संपत्ति का प्रत्यावर्तन कराने के लिए स्वेच्छया क्षति कारित करना।
- धारा 331 – संस्वीकॄति उद्दापित करने के लिए या विवश करके सम्पत्ति का प्रत्यावर्तन कराने के लिए स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना
- धारा 332 – लोक सेवक अपने कर्तव्य से भयोपरत करने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुँचाना
- धारा 333 – लोक सेवक को अपने कर्तव्यों से भयोपरत करने के लिए स्वेच्छया घोर क्षति कारित करना।
- धारा 334 – प्रकोपन पर स्वेच्छया क्षति करना
- धारा 335 – प्रकोपन पर स्वेच्छया घोर उपहति कारित करना
- धारा 336 – दूसरों के जीवन या व्यक्तिगत सुरक्षा को ख़तरा पहुँचाने वाला कार्य।
- धारा 337 – किसी कार्य द्वारा, जिससे मानव जीवन या किसी की व्यक्तिगत सुरक्षा को ख़तरा हो, चोट पहुँचाना कारित करना
- धारा 338 – किसी कार्य द्वारा, जिससे मानव जीवन या किसी की व्यक्तिगत सुरक्षा को ख़तरा हो, गंभीर चोट पहुँचाना कारित करना
- धारा 339 – सदोष अवरोध।
- धारा 340 – सदोष परिरोध या गलत तरीके से प्रतिबंधित करना।
- धारा 341 – सदोष अवरोध के लिए दण्ड
- धारा 342 – ग़लत तरीके से प्रतिबंधित करने के लिए दण्ड।
- धारा 343 – तीन या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध।
- धारा 344 – दस या अधिक दिनों के लिए सदोष परिरोध।
- धारा 345 – ऐसे व्यक्ति का सदोष परिरोध जिसके छोड़ने के लिए रिट निकल चुका है
- धारा 346 – गुप्त स्थान में सदोष परिरोध।
- धारा 347 – सम्पत्ति की जबरन वसूली करने के लिए या अवैध कार्य करने के लिए मजबूर करने के लिए सदोष परिरोध।
- धारा 348 – संस्वीकॄति उद्दापित करने के लिए या विवश करके सम्पत्ति का प्रत्यावर्तन करने के लिए सदोष परिरोध
- धारा 349 – बल।
- धारा 350 – आपराधिक बल
- धारा 351 – हमला।
- धारा 352 – गम्भीर प्रकोपन के बिना हमला करने या आपराधिक बल का प्रयोग करने के लिए दण्ड
- धारा 353 – लोक सेवक को अपने कर्तव्य के निर्वहन से भयोपरत करने के लिए हमला या आपराधिक बल का प्रयोग
- धारा 354 – स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग
- धारा 354क – यौन उत्पीड़न
- धारा 354ख – एक औरत नंगा करने के इरादे के साथ कार्य
- धारा 354ग – छिप कर देखना
- धारा 354घ – पीछा
- धारा 355 – गम्भीर प्रकोपन होने से अन्यथा किसी व्यक्ति का अनादर करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग
- धारा 356 – हमला या आपराधिक बल प्रयोग द्वारा किसी व्यक्ति द्वारा ले जाई जाने वाली संपत्ति की चोरी का प्रयास।
- धारा 357 – किसी व्यक्ति का सदोष परिरोध करने के प्रयत्नों में हमला या आपराधिक बल का प्रयोग।
- धारा 358 – गम्भीर प्रकोपन मिलने पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग
- धारा 359 – व्यपहरण
- धारा 360 – भारत में से व्यपहरण।
- धारा 361 – विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण
- धारा 362 – अपहरण।
- धारा 363 – व्यपहरण के लिए दण्ड
- धारा 363क – भीख मांगने के प्रयोजनों के लिए अप्राप्तवय का व्यपहरण का विकलांगीकरण
- धारा 364 – हत्या करने के लिए व्यपहरण या अपहरण करना।
- धारा 364क – फिरौती, आदि के लिए व्यपहरण।
- धारा 365 – किसी व्यक्ति का गुप्त और अनुचित रूप से सीमित / क़ैद करने के आशय से व्यपहरण या अपहरण।
- धारा 366 – विवाह आदि के करने को विवश करने के लिए किसी स्त्री को व्यपहृत करना, अपहृत करना या उत्प्रेरित करना
- धारा 366क – अप्राप्तवय लड़की का उपापन
- धारा 366ख – विदेश से लड़की का आयात करना
- धारा 367 – व्यक्ति को घोर उपहति, दासत्व, आदि का विषय बनाने के उद्देश्य से व्यपहरण या अपहरण।
- धारा 368 – व्यपहृत या अपहृत व्यक्ति को गलत तरीके से छिपाना या क़ैद करना।
- धारा 369 – दस वर्ष से कम आयु के शिशु के शरीर पर से चोरी करने के आशय से उसका व्यपहरण या अपहरण
- धारा 370 – मानव तस्करी – दास के रूप में किसी व्यक्ति को खरीदना या बेचना।
- धारा 371 – दासों का आभ्यासिक व्यवहार करना।
- धारा 372 – वेश्यावॄत्ति आदि के प्रयोजन के लिए नाबालिग को बेचना।
- धारा 373 – वेश्यावॄत्ति आदि के प्रयोजन के लिए नाबालिग को खरीदना।
- धारा 374 – विधिविरुद्ध बलपूर्वक श्रम।
- धारा 375 – बलात्संग
- धारा 376 – बलात्कार के लिए दण्ड
- धारा 376क – पॄथक् कर दिए जाने के दौरान किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ संभोग्र
- धारा 376ख – लोक सेवक द्वारा अपनी अभिरक्षा में की किसी स्त्री के साथ संभोग
- धारा 376ग – जेल, प्रतिप्रेषण गॄह आदि के अधीक्षक द्वारा संभोग
- धारा 376घ – अस्पताल के प्रबन्ध या कर्मचारिवॄन्द आदि के किसी सदस्य द्वारा उस अस्पताल में किसी स्त्री के साथ संभोग
- धारा 377 – प्रकॄति विरुद्ध अपराध
- धारा 378 – चोरी
- धारा 379 – चोरी के लिए दंड
- धारा 380 – निवास-गॄह आदि में चोरी
- धारा 381 – लिपिक या सेवक द्वारा स्वामी के कब्जे में संपत्ति की चोरी।
- धारा 382 – चोरी करने के लिए मॄत्यु, क्षति या अवरोध कारित करने की तैयारी के पश्चात् चोरी करना।
- धारा 383 – उद्दापन / जबरन वसूली
- धारा 384 – ज़बरदस्ती वसूली करने के लिए दण्ड।
- धारा 385 – ज़बरदस्ती वसूली के लिए किसी व्यक्ति को क्षति के भय में डालना।
- धारा 386 – किसी व्यक्ति को मॄत्यु या गंभीर आघात के भय में डालकर ज़बरदस्ती वसूली करना।
- धारा 387 – ज़बरदस्ती वसूली करने के लिए किसी व्यक्ति को मॄत्यु या घोर आघात के भय में डालना।
- धारा 388 – मॄत्यु या आजीवन कारावास, आदि से दंडनीय अपराध का अभियोग लगाने की धमकी देकर उद्दापन
- धारा 389 – जबरन वसूली करने के लिए किसी व्यक्ति को अपराध का आरोप लगाने के भय में डालना।
- धारा 390 – लूट।
- धारा 391 – डकैती
- धारा 392 – लूट के लिए दण्ड
- धारा 393 – लूट करने का प्रयत्न।
- धारा 394 – लूट करने में स्वेच्छापूर्वक किसी को चोट पहुँचाना
- धारा 395 – डकैती के लिए दण्ड
- धारा 396 – हत्या सहित डकैती।
- धारा 397 – मॄत्यु या घोर आघात कारित करने के प्रयत्न के साथ लूट या डकैती।
- धारा 398 – घातक आयुध से सज्जित होकर लूट या डकैती करने का प्रयत्न।
- धारा 399 – डकैती करने के लिए तैयारी करना।
- धारा 400 – डाकुओं की टोली का होने के लिए दण्ड
- धारा 401 – चोरों के गिरोह का होने के लिए दण्ड।
- धारा 402 – डकैती करने के प्रयोजन से एकत्रित होना।
- धारा 403 – सम्पत्ति का बेईमानी से गबन / दुरुपयोग।
- धारा 404 – मॄत व्यक्ति की मॄत्यु के समय उसके कब्जे में सम्पत्ति का बेईमानी से गबन / दुरुपयोग।
- धारा 405 – आपराधिक विश्वासघात।
- धारा 406 – विश्वास का आपराधिक हनन
- धारा 407 – कार्यवाहक, आदि द्वारा आपराधिक विश्वासघात।
- धारा 408 – लिपिक या सेवक द्वारा विश्वास का आपराधिक हनन
- धारा 409 – लोक सेवक या बैंक कर्मचारी, व्यापारी या अभिकर्ता द्वारा विश्वास का आपराधिक हनन
- धारा 410 – चुराई हुई संपत्ति
- धारा 411 – चुराई हुई संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करना
- धारा 412 – ऐसी संपत्ति को बेईमानी से प्राप्त करना जो डकैती करने में चुराई गई है।
- धारा 413 – चुराई हुई संपत्ति का अभ्यासतः व्यापार करना।
- धारा 414 – चुराई हुई संपत्ति छिपाने में सहायता करना।
- धारा 415 – छल
- धारा 416 – प्रतिरूपण द्वारा छल
- धारा 417 – छल के लिए दण्ड।
- धारा 418 – इस ज्ञान के साथ छल करना कि उस व्यक्ति को सदोष हानि हो सकती है जिसका हित संरक्षित रखने के लिए अपराधी आबद्ध है
- धारा 419 – प्रतिरूपण द्वारा छल के लिए दण्ड।
- धारा 420 – छल करना और बेईमानी से बहुमूल्य वस्तु / संपत्ति देने के लिए प्रेरित करना
- धारा 421 – लेनदारों में वितरण निवारित करने के लिए संपत्ति का बेईमानी से या कपटपूर्वक अपसारण या छिपाना
- धारा 422 – त्रऐंण को लेनदारों के लिए उपलब्ध होने से बेईमानी से या कपटपूर्वक निवारित करना
- धारा 423 – अन्तरण के ऐसे विलेख का, जिसमें प्रतिफल के संबंध में मिथ्या कथन अन्तर्विष्ट है, बेईमानी से या कपटपूर्वक निष्पादन
- धारा 424 – सम्पत्ति का बेईमानी से या कपटपूर्वक अपसारण या छिपाया जाना
- धारा 425 – रिष्टि / कुचेष्टा।
- धारा 426 – रिष्टि के लिए दण्ड
- धारा 427 – कुचेष्टा जिससे पचास रुपए का नुकसान होता है
- धारा 428 – दस रुपए के मूल्य के जीवजन्तु को वध करने या उसे विकलांग करने द्वारा रिष्टि
- धारा 429 – किसी मूल्य के ढोर, आदि को या पचास रुपए के मूल्य के किसी जीवजन्तु का वध करने या उसे विकलांग करने आदि द्वारा कुचेष्टा।
- धारा 430 – सिंचन संकर्म को क्षति करने या जल को दोषपूर्वक मोड़ने द्वारा रिष्टि
- धारा 431 – लोक सड़क, पुल, नदी या जलसरणी को क्षति पहुंचाकर रिष्टि
- धारा 432 – लोक जल निकास में नुकसानप्रद जलप्लावन या बाधा कारित करने द्वारा रिष्टि
- धारा 433 – किसी दीपगॄह या समुद्री-चिह्न को नष्ट करके, हटाकर या कम उपयोगी बनाकर रिष्टि
- धारा 434 – लोक प्राधिकारी द्वारा लगाए गए भूमि चिह्न के नष्ट करने या हटाने आदि द्वारा रिष्टि
- धारा 435 – सौ रुपए का या (कॄषि उपज की दशा में) दस रुपए का नुकसान कारित करने के आशय से अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा कुचेष्टा।
- धारा 436 – गॄह आदि को नष्ट करने के आशय से अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा कुचेष्टा।
- धारा 437 – किसी तल्लायुक्त या बीस टन बोझ वाले जलयान को नष्ट करने या असुरक्षित बनाने के आशय से कुचेष्टा।
- धारा 438 – धारा 437 में वर्णित अग्नि या विस्फोटक पदार्थ द्वारा की गई कुचेष्टा के लिए दण्ड।
- धारा 439 – चोरी, आदि करने के आशय से जलयान को साशय भूमि या किनारे पर चढ़ा देने के लिए दण्ड।
- धारा 440 – मॄत्यु या उपहति कारित करने की तैयारी के पश्चात् की गई रिष्टि
- धारा 441 – आपराधिक अतिचार।
- धारा 442 – गॄह-अतिचार
- धारा 443 – प्रच्छन्न गॄह-अतिचार
- धारा 444 – रात्रौ प्रच्छन्न गॄह-अतिचार
- धारा 445 – गॄह-भेदन।
- धारा 446 – रात्रौ गॄह-भेदन
- धारा 447 – आपराधिक अतिचार के लिए दण्ड।
- धारा 448 – गॄह-अतिचार के लिए दण्ड।
- धारा 449 – मॄत्यु से दंडनीय अपराध को रोकने के लिए गॄह-अतिचार
- धारा 450 – अपजीवन कारावास से दंडनीय अपराध को करने के लिए गॄह-अतिचार
- धारा 451 – कारावास से दण्डनीय अपराध को करने के लिए गॄह-अतिचार।
- धारा 452 – बिना अनुमति घर में घुसना, चोट पहुंचाने के लिए हमले की तैयारी, हमला या गलत तरीके से दबाव बनाना
- धारा 453 – प्रच्छन्न गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन के लिए दंड
- धारा 454 – कारावास से दण्डनीय अपराध करने के लिए छिप कर गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन करना।
- धारा 455 – उपहति, हमले या सदोष अवरोध की तैयारी के पश्चात् प्रच्छन्न गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन
- धारा 456 – रात में छिप कर गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन के लिए दण्ड।
- धारा 457 – कारावास से दण्डनीय अपराध करने के लिए रात में छिप कर गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन करना।
- धारा 458 – क्षति, हमला या सदोष अवरोध की तैयारी के करके रात में गॄह-अतिचार।
- धारा 459 – प्रच्छन्न गॄह-अतिचार या गॄह-भेदन करते समय घोर उपहति कारित हो
- धारा 460 – रात्रौ प्रच्छन्न गॄह-अतिचार या रात्रौ गॄह-भेदन में संयुक्ततः सम्पॄक्त समस्त व्यक्ति दंडनीय हैं, जबकि उनमें से एक द्वारा मॄत्यु या घोर उपहति कारित हो
- धारा 461 – ऐसे पात्र को, जिसमें संपत्ति है, बेईमानी से तोड़कर खोलना
- धारा 462 – उसी अपराध के लिए दंड, जब कि वह ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है जिसे अभिरक्षा न्यस्त की गई है
- धारा 463 – कूटरचना
- धारा 464 – मिथ्या दस्तावेज रचना
- धारा 465 – कूटरचना के लिए दण्ड।
- धारा 466 – न्यायालय के अभिलेख की या लोक रजिस्टर आदि की कूटरचना
- धारा 467 – मूल्यवान प्रतिभूति, वसीयत, इत्यादि की कूटरचना
- धारा 468 – छल के प्रयोजन से कूटरचना
- धारा 469 – ख्याति को अपहानि पहुंचाने के आशय से कूटरचन्न
- धारा 470 – कूटरचित 2[दस्तावेज या इलैक्ट्रानिक अभिलेखट
- धारा 471 – कूटरचित दस्तावेज या इलैक्ट्रानिक अभिलेख का असली के रूप में उपयोग में लाना
- धारा 472 – धारा 467 के अधीन दण्डनीय कूटरचना करने के आशय से कूटकॄत मुद्रा, आदि का बनाना या कब्जे में रखना
- धारा 473 – अन्यथा दण्डनीय कूटरचना करने के आशय से कूटकॄत मुद्रा, आदि का बनाना या कब्जे में रखना
- धारा 474 – धारा 466 या 467 में वर्णित दस्तावेज को, उसे कूटरचित जानते हुए और उसे असली के रूप में उपयोग में लाने का आशय रखते हुए, कब्जे में रखना
- धारा 475 – धारा 467 में वर्णित दस्तावेजों के अधिप्रमाणीकरण के लिए उपयोग में लाई जाने वाली अभिलक्षणा या चिह्न की कूटकॄति बनाना या कूटकॄत चिह्नयुक्त पदार्थ को कब्जे में रखना
- धारा 476 – धारा 467 में वर्णित दस्तावेजों से भिन्न दस्तावेजों के अधिप्रमाणीकरण के लिए उपयोग में लाई जाने वाली अभिलक्षणा या चिह्न की कूटकॄति बनाना या कूटकॄत चिह्नयुक्त पदार्थ को कब्जे में रखना
- धारा 477 – विल, दत्तकग्रहण प्राधिकार-पत्र या मूल्यवान प्रतिभूति को कपटपूर्वक रदद््, नष्ट, आदि करना
- धारा 477क – लेखा का मिथ्याकरण
- धारा 478 – व्यापार चिह्न
- धारा 479 – सम्पत्ति-चिह्न
- धारा 480 – मिथ्या व्यापार चिह्न का प्रयोग किया जाना
- धारा 481 – मिथ्या सम्पत्ति-चिह्न को उपयोग में लाना
- धारा 482 – मिथ्या सम्पत्ति-चिह्न को उपयोग करने के लिए दण्ड।
- धारा 483 – अन्य व्यक्ति द्वारा उपयोग में लाए गए सम्पत्ति चिह्न का कूटकरण
- धारा 484 – लोक सेवक द्वारा उपयोग में लाए गए चिह्न का कूटकरण
- धारा 485 – सम्पत्ति-चिह्न के कूटकरण के लिए कोई उपकरण बनाना या उस पर कब्जा
- धारा 486 – कूटकॄत सम्पत्ति-चिह्न से चिन्हित माल का विक्रय
- धारा 487 – किसी ऐसे पात्र के ऊपर मिथ्या चिह्न बनाना जिसमें माल रखा है
- धारा 488 – किसी ऐसे मिथ्या चिह्न को उपयोग में लाने के लिए दण्ड
- धारा 489 – क्षति कारित करने के आशय से सम्पत्ति-चिह्न को बिगाड़ना
- धारा 489क – करेन्सी नोटों या बैंक नोटों का कूटकरण
- धारा 489ख – कूटरचित या कूटकॄत करेंसी नोटों या बैंक नोटों को असली के रूप में उपयोग में लाना
- धारा 489ग – कूटरचित या कूटकॄत करेन्सी नोटों या बैंक नोटों को कब्जे में रखना
- धारा 489घ – करेन्सी नोटों या बैंक नोटों की कूटरचना या कूटकरण के लिए उपकरण या सामग्री बनाना या कब्जे में रखना
- धारा 489ङ – करेन्सी नोटों या बैंक नोटों से सदृश्य रखने वाली दस्तावेजों की रचना या उपयोग
- धारा 490 – समुद्र यात्रा या यात्रा के दौरान सेवा भंग
- धारा 491 – असहाय व्यक्ति की परिचर्या करने की और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की संविदा का भंग
- धारा 492 – दूर वाले स्थान पर सेवा करने का संविदा भंग जहां सेवक को मालिक के खर्चे पर ले जाया जाता है
- धारा 493 – विधिपूर्ण विवाह का धोखे से विश्वास उत्प्रेरित करने वाले पुरुष द्वारा कारित सहवास।
- धारा 494 – पति या पत्नी के जीवनकाल में पुनः विवाह करना
- धारा 495 – वही अपराध पूर्ववर्ती विवाह को उस व्यक्ति से छिपाकर जिसके साथ आगामी विवाह किया जाता है।
- धारा 496 – विधिपूर्ण विवाह के बिना कपटपूर्वक विवाह कर्म पूरा करना।
- धारा 497 – व्यभिचार
- धारा 498 – विवाहित स्त्री को आपराधिक आशय से फुसलाकर ले जाना, या निरुद्ध रखना
- धारा 498A – किसी स्त्री के पति या पति के नातेदार द्वारा उसके प्रति क्रूरता करना
- धारा 499 – मानहानि
- धारा 500 – मानहानि के लिए दण्ड।
- धारा 501 – मानहानिकारक जानी हुई बात को मुद्रित या उत्कीर्ण करना।
- धारा 502 – मानहानिकारक विषय रखने वाले मुद्रित या उत्कीर्ण सामग्री का बेचना।
- धारा 503 – आपराधिक अभित्रास।
- धारा 504 – शांति भंग करने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना
- धारा 505 – लोक रिष्टिकारक वक्तव्य।
- धारा 506 – धमकाना
- धारा 507 – अनाम संसूचना द्वारा आपराधिक अभित्रास।
- धारा 508 – व्यक्ति को यह विश्वास करने के लिए उत्प्रेरित करके कि वह दैवी अप्रसाद का भाजन होगा कराया गया कार्य
- धारा 509 – शब्द, अंगविक्षेप या कार्य जो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित है
- धारा 510 – शराबी व्यक्ति द्वारा लोक स्थान में दुराचार।
- धारा 511 – आजीवन कारावास या अन्य कारावास से दण्डनीय अपराधों को करने का प्रयत्न करने के लिए दण्ड।
सी.आर.पी.सी (CrPC) का क्या मतलब
‘सीआरपीसी’ (CrPC) दंड प्रक्रिया संहिता को संक्षिप्त में कहते है। दंड देने के लिए जिन प्रक्रियाओं
को न्यायालय द्वारा अपनाया जाता है उनको ही इस संहिता में समाहित किया गया है |
आज यहाँ हम आपको CrPC 1973 के बारे में वो सब कुछ बताएँगे जिसको जानने की ललक
आपके मन में रहती है |
कानून को दो भागों में विभाजित किया गया है: –
1. मौलिक विधि (Substantive Law)
2. प्रक्रिया विधि (Procedural Law)
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) का फुल फॉर्म
क्रिमिनल प्रोसीजर कोड CRIMINAL PROCEDURE CODE कहते हैं इसे हिंदी में “दंड प्रिक्रिया संहिता” कहते हैं । सी.आर.पी.सी (CrPC) 1983 भारत के सभी नागरिकों पर लागू है। यह कानून सन् 1973 में पारित हुआ और 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ था | CrPC में कई बार संशोधन भी किया गया है । “दंड प्रिक्रिया संहिता” में 37 अध्याय तथा कुल 484 धाराएं हैं।
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की महत्वपूर्ण धाराओं की सूची
- सीआरपीसी धारा 1 – संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ
- सीआरपीसी धारा 2 – परिभाषाएं
- सीआरपीसी धारा 3 – निर्देशों का अर्थ लगाना
- सीआरपीसी धारा 4 – भारतीय दंड संहिता और अन्य कानूनों के तहत अपराधों के परीक्षण
- सीआरपीसी धारा 5 – व्यावृत्ति
- सीआरपीसी धारा 6 – आपराधिक न्यायालयों के वर्ग
- सीआरपीसी धारा 7 – परिभाषाएं
- सीआरपीसी धारा 8 – परिभाषाएं
- सीआरपीसी धारा 9 – सत्र न्यायालय
- सीआरपीसी धारा 10 – परिभाषाएं
- सीआरपीसी धारा 11 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों के न्यायालय
- सीआरपीसी धारा 12 – मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, आदि
- सीआरपीसी धारा 13 – विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट
- सीआरपीसी धारा 14 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता
- सीआरपीसी धारा 15 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना
- सीआरपीसी धारा 16 – महानगर मजिस्ट्रेटों के न्यायालय
- सीआरपीसी धारा 17 – मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट और अपर मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट
- सीआरपीसी धारा 18 – विशेष महानगर मजिस्ट्रेट
- सीआरपीसी धारा 19 – महानगर मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना
- सीआरपीसी धारा 20 – कार्यपालक मजिस्ट्रेट
- सीआरपीसी धारा 21 – विशेष कार्यपालक मजिस्ट्रेट
- सीआरपीसी धारा 22 – कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की स्थानीय अधिकारिता
- सीआरपीसी धारा 23 – कार्यपालक मजिस्ट्रेटों का अधीनस्थ होना
- सीआरपीसी धारा 24 – सार्वजनिक सरकारी वकील
- सीआरपीसी धारा 25 – सहायक लोक अभियोजक
- सीआरपीसी धारा 26 – न्यायालय, जिनके द्वारा अपराध विचारणीय हैं
- सीआरपीसी धारा 27 – किशोरों के मामलों में अधिकारिता
- सीआरपीसी धारा 28 – दंडादेश, जो उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश दे सकेंगे
- सीआरपीसी धारा 29 – दंडादेश, जो मजिस्ट्रेट दे सकेंगे
- सीआरपीसी धारा 30 – जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर कारावास का दंडादेश
- सीआरपीसी धारा 31 – एक ही विचारण में कई अपराधों के लिए दोषसिद्ध होने के मामलों में दंडादेश
- सीआरपीसी धारा 32 – शक्तियां प्रदान करने का ढंग
- सीआरपीसी धारा 33 – नियुक्त अधिकारियों की शक्तियां
- सीआरपीसी धारा 34 – शक्तियों को वापस लेना
- सीआरपीसी धारा 35 – न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों की शक्तियों का उनके पद-उत्तरवर्तियों द्वारा प्रयोग किया जा सकना
- सीआरपीसी धारा 36 – वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की शक्तियां
- सीआरपीसी धारा 37 – जनता कब मजिस्ट्रेट और पुलिस की सहायता करेगी
- सीआरपीसी धारा 38 – पुलिस अधिकारी से भिन्न ऐसे व्यक्ति को सहायता जो वारंट का निष्पादन कर रहा है
- सीआरपीसी धारा 39 – जब कुछ अपराधों की इत्तिला का जनता द्वारा दिया जाना
- सीआरपीसी धारा 40 – ग्राम के मामलों के संबंध में नियोजित अधिकारियों के कतिपय रिपोर्ट करने का कर्तव्य
- सीआरपीसी धारा 41 – पुलिस वारंट के बिना कब गिरफ्तार कर सकेगी
- सीआरपीसी धारा 42 – नाम और निवास बताने से इनकार करने पर गिरफ्तारी
- सीआरपीसी धारा 43 – प्राइवेट व्यक्ति द्वारा गिरफ्तारी और ऐसी गिरफ्तारी पर प्रक्रिया
- सीआरपीसी धारा 44 – मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी
- सीआरपीसी धारा 45 – सशस्त्र बलों के सदस्यों का गिरफ्तारी से संरक्षण
- सीआरपीसी धारा 46 – गिरफ्तारी कैसे की जाएगी
- सीआरपीसी धारा 47 – उस स्थान की तलाशी जिसमें ऐसा व्यक्ति प्रविष्ट हुआ है जिसकी गिरफ्तारी की जानी है
- सीआरपीसी धारा 48 – अन्य अधिकारिताओं में अपराधियों का पीछा करना
- सीआरपीसी धारा 49 – अनावश्यक अवरोध न करना
- सीआरपीसी धारा 50 – गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के आधारों और जमानत के अधिकार की इत्तिला दी जाना
- सीआरपीसी धारा 51 –
- सीआरपीसी धारा 91 – सम्मन दस्तावेज़ या दूसरी बात यह निर्माण करने के लिए
- सीआरपीसी धारा 107 – अन्य मामलों में शांति रखने के लिए सुरक्षा
- सीआरपीसी धारा 125 – पत्नियों, बच्चों और माता पिता के रखरखाव के लिए आदेश
- सीआरपीसी धारा 133 – उपद्रव को हटाने के लिए सशर्त आदेश
- सीआरपीसी धारा 144 – उपद्रव या गिरफ्तार खतरे के तत्काल मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति
- सीआरपीसी धारा 145 – प्रक्रिया जहां भूमि या पानी से संबंधित विवाद शांति का उल्लंघन करने की संभावना है
- सीआरपीसी धारा 151 – संज्ञेय अपराधों के आयोग को रोकने के लिए गिरफ्तारी
- सीआरपीसी धारा 154 – संज्ञेय मामलों में सूचना
- सीआरपीसी धारा 161 – पुलिस द्वारा गवाहों से पूछताछ
- सीआरपीसी धारा 164 – बयान और बयान की रिकॉर्डिंग
- सीआरपीसी धारा 174 – पुलिस द्वारा पूछताछ और आत्महत्या आदि पर रिपोर्ट
- सीआरपीसी धारा 197 – न्यायाधीशों और सरकारी कर्मचारियों के अभियोजन
- सीआरपीसी धारा 200 – शिकायतकर्ता से पूछताछ
- सीआरपीसी धारा 202 – प्रक्रिया के मुद्दे को स्थगित करना
- सीआरपीसी धारा 279 – आरोपी या उसके वकील को साक्ष्य की व्याख्या
- सीआरपीसी धारा 307 – माफी के निविदा को निर्देशित करने की शक्ति
- सीआरपीसी धारा 324 – पहले सिक्का, टिकट कानून या संपत्ति के खिलाफ अपराधों को दोषी ठहराए गए व्यक्तियों का परीक्षण
- सीआरपीसी धारा 340 – धारा 195 में उल्लिखित मामलों में प्रक्रिया
- सीआरपीसी धारा 354 – भाषा और निर्णय की सामग्री
- सीआरपीसी धारा 356 – पहले से दोषी ठहराया अपराधी का पता अधिसूचित करने के लिए आदेश
- सीआरपीसी धारा 376 – छोटे मामलों में कोई अपील नहीं
- सीआरपीसी धारा 397 – रिकॉर्ड के लिए कॉलिंग संशोधन की शक्तियों का प्रयोग
- सीआरपीसी धारा 420 – वारंट किसके साथ दर्ज किया जाना है
- सीआरपीसी धारा 435 – कुछ मामलों में केंद्र सरकार के परामर्श के बाद राज्य सरकार कार्य करेगी
- सीआरपीसी धारा 438 – गिरफ्तारी को पकड़ने वाले व्यक्ति को जमानत देने के लिए दिशा
- सीआरपीसी धारा 482 – उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति की बचत।
IPC और CrPC में क्या अंतर होता है?
What is the difference between
IPC and CrPC?
भारत के नागरिक के रूप में, देश के कानून के बारे में जानना ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उनसे अच्छी तरह अवगत होना भी अनिवार्य है, किस-किस प्रकार के कानून को किन अपराधों में लागू किया जाता है, अपराधी को क्या सजा दी जाती है और क्यों, ये सब जानना जरुरी है, उससे भी पहले अपराध क्या होता है आदि भी पता होना अनिवार्य है, तो आइये अध्ययन करते हैं भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code,IPC) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure,CrPC) क्या होती है और इनमें क्या अंतर होता है-
IPC क्या होती है?
भारतीय दंड संहिता को Indian Penal Code, भारतीय दंड विधान और उर्दू में ताज इरात-ए-हिन्द भी कहते हैं जो कि 1860
में बना था, आपने फिल्मों में देखा होगा कि कोर्ट में जज जब सजा सुनाते हैं तो
कहते हैं कि ताज इरात-ए-हिन्द दफा 302 के तहत मौत की सजा दी जाती है, ये और कुछ
नहीं बल्कि भारतीय दंड संहिता ही होती है और दफा का मतलब धारा या Section से
होता है। ये धारा या Section लगातार संख्याओं को कहते हैं, IPC में कुल मिलाकर
511 धाराएं ( Sections) और 23 chapters हैं यानी 23 अध्याओं में बटा हुआ है,
क्या आप जानते हैं कि 1834 में पहला विधि आयोग (first law of commission) बनाया
गया था, इसके चेयरपर्सन लॉर्ड मैकॉले थे, इन्हीं की अध्यक्षता में IPC का
ड्राफ्ट तैयार किया गया था, 6 अक्टूबर 1860 में यह कानून संसद में पास हुआ और
1862 में यह पूरी तरह से लागू किया गया था, यहीं आपकी जानकारी के लिए बता दें
कि विश्व का सबसे बड़ा दांडिक संग्रह यानी IPC से बड़ा देश में और कोई भी दांडिक
कानून नहीं है इसलिए इसको मुख्य क्रिमिनल कोड भी कहते हैं।
यह कानून कश्मीर को छोड़कर पूरे भारत में लागू है, जम्मू एवं कश्मीर में
‘रणबीर दण्ड संहिता’ (RPC) लागू होती है, IPC को लागू करने का मुख्य उद्देश्य
था कि सम्पूर्ण भारत में एक ही तरह का कानून को लागू किया जा सके ताकि अलग-अलग
क्षेत्रीय कानूनों की जगह एक ही कोड हो, IPC कानून अपराधों के बारे में बताता
है और उनमें से प्रत्येक के लिए क्या सजा होगी और जुर्माने की भी जानकारी देता
है।
CrPC क्या होता है?
CrPC को Code of Criminal Procedure और हिन्दी में दण्ड प्रक्रिया संहिता कहते है, यह कानून सन् 1973 में पारित हुआ और 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ था, किसी भी प्रकार के अपराध होने के बाद दो तरह की प्रक्रियाएं होती हैं जिसे पुलिस किसी अपराधी की जांच करने के लिए अपनाती है, एक प्रक्रिया पीड़ित के संबंध में और दूसरी आरोपी के संबंध में होती है, इन्हीं प्रक्रियाओं के बारे में CrPC में बताया गया है, दण्ड प्रक्रिया संहिता को मशीनरी के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है जो मुख्य आपराधिक कानून (IPC) के लिए एक तंत्र प्रदान करता है, प्रक्रियाओं का विवरण इस प्रकार है-
– अपराध की जांच (Investigation of crime)
– संदिग्धों के प्रति बरताव (Treatment of the suspects)
– साक्ष्य संग्रह प्रक्रिया (Evidence collection process)
– यह निर्धारित करना कि अपराधी दोषी है या नहीं –
कानून को दो हिस्से या सेगमेंट में बांटा गया है: –
1. मौलिक विधि (Substantive law)
2. प्रक्रिया विधि (Procedural Law)
मौलिक विधि और प्रक्रिया विधि को फिर से बांटा गया
है: सिविल कानून (Civil law) और दाण्डिक कानून (Criminal Law), उर्दू में सिविल
कानून को दीवानी विधि और दाण्डिक कानून को फौजदारी विधि कहा जाता है, IPC,
मौलिक विधि (Substantive law) है और CrPC प्रक्रिया विधि (Procedural Law)
है।
IPC और CrPC कानून क्या कहते हैं?
IPC अपराध की परिभाषा करती है और दण्ड का प्रावधान बताती है यानी it defines
offences and provides punishment for it. यह विभिन्न अपराधों और उनकी सजा को
सूचीबद्ध करता है, वहीं CrPC आपराधिक मामले के लिए किए गए प्रक्रियाओं के बारे
में बताती है, इसका उद्देश्य आपराधिक प्रक्रिया से संबंधित कानून को मजबूत करना
है।
अपराध क्या होता है?
उदाहरण – मानलीजिये सड़क पर 5 लोगों ने किसी आदमी को रोका और डरा धमका के उससे घड़ी, पैसे और चैन इत्यादि समान ले लिया और अखबार में खबर छपती है कि पांच लोगों ने एक आदमी को सरे आम लूटा, तो क्या ये लूट है? इसी प्रकार एक और उदाहरण देखिये कि दो लोग किसी भी बैंक में रात में घुसते है और 2 करोड़ रूपये ताला तोड़कर निकाल लेते हैं और अखबार में छपता है कि दो लोगों ने बैंक में डकैती डाली, तो क्या ये डकैती है? हम आपको बता दें कि ये दोनों खबर गलत छपीं हैं न तो वह लूट थी और न ही डकैती, अब ये जानने के लिए कि फिर ये कौन से अपराध हुए इसके लिए IPC में दिए गए अध्याओं को अध्ययन करना होगा।
IPC के अनुसार अगर पांच लोग कहीं मिलकर लूट करते हैं तो वह डकैती होती है यानी उन पांच लोगो ने जो उस आदमी को रोक कर उससे उसका सामान लिया तो वह डकैती थी और दूसरे में जो दो लोग बैंक में घुसे थे IPC के अनुसार दो लोग कभी भी डकैती नहीं कर सकते हैं, डकैती करने के लिए कम से कम पांच लोगों का होना जरूरी है, किसी को डराना और धमकाना ये डकैती के दौरान किया जाता है, बैंक में दो लोगों ने रात में पैसे निकाले इसके लिए उन्होंने किसी को न तो डराया और ना ही धमकाया इसलिए ये डकैती न हो के चोरी है, अगर दिन में ये दो लोग गार्ड या लोगों को डराकर बंदूक की नोक पर पैसे ले जाते तो ये लूट होती और अगर पांच लोग होते तो डकैती होती, इन सब चीजों के बारे में या यू कहे कि इन सबकी परिभाषाएं IPC में मिलती हैं।
अगर कोई चोरी करता है तो IPC के section 379 के तहत 3 साल का कारावास और जुर्माना हो सकता है, लेकिन अगर किसी घर में या बिल्डिंग में या किसी परिसर में चोरी होती है तो IPC की धारा 380 के तहत 7 साल का कारावास हो सकता है, अब अपराध क्या होता है, क्या सजा होगी उस अपराध की के बारे में आप जान गए होंगे लेकिन इसके लिए क्या प्रक्रिया होगी यानी अपराधी कैसे गिरफ्तार किया जाएगा, सबूत इकट्ठा करना, जमानत कैसे दी जाएगी, जमानत के लिए एप्लीकेशन कहा दी जाएगी, आरोपी के अपराध या निर्दोषता को निर्धारित करना, पुलिस के क्या कार्य हैं, वकील और मजिस्ट्रेट के क्या कार्य हैं, गिरफ्तारी के तरीके कैसे होंगे, गिरफ्तारी के बाद व्यक्ति जेल में कितने दिन रखा जाएगा, मजिस्ट्रेट के सामने उसको कब उपस्थित करना होगा, इत्यादि तरह की सारी बातें प्रक्रिया के अंतर्गत आती हैं और CrPC में मिलेंगी. संक्षेप में, यह जांच, परीक्षण, जमानत, पूछताछ, गिरफ्तारी आदि के लिए CrPC पूरी प्रक्रिया का वर्णन करता है।
IPC अपराध की परिभाषा करती है और दण्ड का प्रावधान बताती है यानी it defines offences and provides punishment for it. यह विभिन्न अपराधों और उनकी सजा को सूचीबद्ध करता है, वहीं CrPC आपराधिक मामले के लिए किए गए प्रक्रियाओं के बारे में बताती है, इसका उद्देश्य आपराधिक प्रक्रिया से संबंधित कानून को मजबूत करना है।
CrPC में कितनी धारा होती है?
यह कानून सन् 1973 में पारित हुआ और 1 अप्रैल 1974 से लागू हुआ था | CrPC में कई बार संशोधन भी किया गया है । “दंड प्रिक्रिया संहिता” में 37 अध्याय तथा कुल 484 धाराएं हैं।
भारतीय दंड संहिता में किस जुर्म में लगेगी
कौनसी IPC की धारा
“IPC सेक्शन 140”
जुर्म – अवैध हथियार रखना जिनको जान से खतरा हो
सजा – 2 साल तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 420”
जुर्म – जब कोई व्यक्ति या संस्थान बेईमानी या फर्जीवाड़ा करता है
सजा – 7 साल तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 510”
जुर्म – सार्वजनिक स्थान पर शराब पीकर हंगामा करना
सजा- 24 घंटे तक की जेल और जुर्माना
“IPC सेक्शन 489B”
जुर्म – जान बूझकर जाली नोट चलाने की कोशिश करना
सजा – 10 साल तक की जेल
“IPC सेक्शन 295”
जुर्म – धार्मिक स्थल तोड़ने या फिर अपमान करने पर
सजा – 2 साल तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 147”
जुर्म – दंगा करना
सजा – 2 साल तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 509”
जुर्म – बोलकर, इशारों या आवाज से महिला को परेशान करना
सजा – 1 साल तक की जेल और जुर्माना
“IPC सेक्शन 279”
जुर्म – खराब ड्राइविंग और दूसरों की जान खतरे में डालने पर
सजा – 6 महीने तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 359”
जुर्म – अपहरण करना
सजा – 7 साल तक की जेल या जुर्माना दोनों
“IPC सेक्शन 376”
जुर्म – किसी भी श्त्री के साथ बलात्कार करना ये सबसे कठोर धारा मानी जाती है
“IPC सेक्शन 300”
जुर्म – हत्या के आरोप में धारा 300 को आरोपी पे लगाया जाता है
“IPC सेक्शन 365”
जुर्म – अपराह के आरोप में धारा 365 का प्रयोग किया जाता है
“IPC सेक्शन 307”
जुर्म – हत्या करने की कोसिस में ये धारा 307 लागू होता है आरोपी पर
“IPC सेक्शन 302”
जुर्म – हत्या करने के आरोप में धारा 300 लगता है
“IPC सेक्शन 312”
जुर्म – गर्भ पात करने के आरोप में धारा 312 लगता है
“IPC सेक्शन 309”
जुर्म – आत्म हत्या की कोशिश में भी धारा लगती है क्यों की आत्म हत्या एक गुनाह है
“IPC सेक्शन 378”
जुर्म – चोरी करने के आरोप में धारा 378 लगता है
विधि/कानून किसे कहते हैं ?
विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते हैं जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवार्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देती है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि (या, कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है।
विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते हैं जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवार्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देती है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में ‘विधि के विधान’ का है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।
परिचय
कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य की इच्छा’ का रूप ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे, कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है। राजनीतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
संविधानसम्मत आधार पर संचालित होने वाले उदारतावादी लोकतंत्रों में ‘कानून के शासन’ की धारणा प्रचलित होती है। इन व्यवस्थाओं में कानून के दायरे के बाहर कोई काम नहीं करता, न व्यक्ति और न ही सरकार। इसके पीछे कानून का उदारतावादी सिद्धांत है जिसके अनुसार कानून का उद्देश्य व्यक्ति पर पाबंदियाँ लगाना न हो कर उसकी स्वतंत्रता की गारंटी करना है। उदारतावादी सिद्धांत मानता है कि कानून के बिना व्यक्तिगत आचरण को संयमित करना नामुमकिन हो जाएगा और एक के अधिकारों को दूसरे के हाथों हनन से बचाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जॉन लॉक की भाषा में कानून का मतलब है जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा के लिए कानून। उदारतावादी सिद्धांत स्पष्ट करता है कि कानून के बनाने और लागू करने के तरीके कौन-कौन से होने चाहिए। उदाहरणार्थ, कानून निर्वाचित विधिकर्त्ताओं द्वारा आपसी विचार-विमर्श के द्वारा किया जाना चाहिए। दूसरे, कोई कानून पिछली तारीख़ से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस सूरत में वह नागरिकों को उन कामों के लिए दण्डित करेगा जो तत्कालीन कानून के मुताबिक किये गये थे। इसी तरह उदारतावादी कानून क्रूर और अमानवीय किस्म की सज़ाएँ देने के विरुद्ध होता है। राजनीतिक प्रभावों से निरपेक्ष रहने वाली एक निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की जाती है ताकि कानून की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए पक्षकारों के बीच उसके आधार पर फ़ैसला हो सके। मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कानून के शासन की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी करने के नाम पर सम्पत्ति संबंधी अधिकारों की रक्षा करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के काम आती है। इसका नतीजा सामाजिक विषमता और वर्गीय प्रभुत्व को बनाये रखने में निकलता है। मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं जिसका बेस या आधार पूँजीवादी उत्पादन की विधि पर रखा जाता है। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है। इसीलिए न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुषों का कब्ज़ा रहता है। बहुसंस्कृतिवाद के पैरोकारों का तर्क है कि कानून असल में प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों और रवैयों की नुमाइंदगी ही करता है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक और हाशियाग्रस्त समूहों के मूल्य और सरोकार नज़रअंदाज़ किये जाते रहते हैं।
कानून और नैतिकता के बीच अंतर के सवाल पर दार्शनिक शुरू से ही सिर खपाते रहे हैं। कानून का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और उनके बाद अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नज़दीकी रिश्ता होता है। एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रज्ञा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिए। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक, धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुईं। जॉन आस्टिन ने ‘विधिक प्रत्यक्षतावाद’ की स्थापना की जिसका दावा था कि कानून का सरोकार किसी उच्चतर नैतिक या धार्मिक उसूल से न हो कर किसी सम्प्रभु व्यक्ति या संस्था से होता है। कानून इसलिए कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कहीं अधिक व्यावहारिक और नफ़ीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना ‘द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ’ (1961) में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को ‘कानून के सार’ की संज्ञा देते हुए हार्ट कहते हैं कि उनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे, फ़ौजदारी कानून। द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनॉल्ड ड्वॅर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिए किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती हैं।
कानून और नैतिकता के बीच संबंध की बहस नाज़ियों के अत्याचारों को दण्डित करने वाले न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में भी उठी थी। प्रश्न यह था कि क्या उन कामों को अपराध ठहराया जा सकता है जो राष्ट्रीय कानून के मुताबिक किये गये हों? इसके जवाब के लिए प्राकृतिक कानून की अवधारणा का सहारा लिया गया, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मानवाधिकारों की भाषा में हुई। दरअसल कानून और नैतिकता के रिश्ते का प्रश्न बेहद जटिल है और गर्भपात, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी और फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा, अपनी कोख किराए पर देने वाली माताओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे मसलों के सदंर्भ में बार-बार उठती रहती है।
प्रकार
विधि के दो प्रकार हैं–
- (1) मौलिक विधि– विधि जो कर्तव्य व अधिकारों की परिभाषा दे।
- (2) प्रक्रिया विधि– विधि जो कार्यवाही के प्रक्रमों (प्रोसीजर्स) को निर्धारण करे।
कौनसी विधियाँ, प्रक्रिया हैं-
- (क) दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973,
- (ख) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908,
- (ग) भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 आदि प्रक्रिया विधि हैं।
मौलिक विधियाँ निम्न हैं-
- (क) भारतीय संविदा अधिनियम,
- (ख) भारतीय दण्ड संहिता 1860,
- (ग) सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम 1882 आदि
सूचना का अधिकार
मुख्य रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ 2005 में एक अधिनियम लागू किया गया जिसे सुचना का अधिकार यानी RTI कहा गया. इसके अंतर्गत कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी विभाग से कोई भी जानकारी ले सकता है बस शर्त यह है की RTI के तहत पूछी जाने वाली जानकारी तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए. यानि हम किसी सरकारी विभाग से उसके विचार नही पूछ सकते. जैसे आप के ईलाके में विकास के कामो के लिए कितने पैसे खर्च हुए है और कहाँ खर्च हुए है, आपके इलाके की राशन की दुकान में कब और कितना राशन आया, स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल में कितने पैसे खर्च हुए है जैसे सवाल आप सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत पता कर सकते है.
प्रयोग एवं फायदे
- कोई भी नागरिक, किसी भी सरकारी विभाग से जानकारी प्राप्त कर सकता है
- ये अधिकार एक आम नागरिक के पास है जो सरकार के काम या प्रशासन में और भी पारदर्शिता लाने का काम करता है.
- भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा कदम है.
- इस अधिकार का उपयोग हम किसी भी सरकारी विभाग की राय जानने के लिए नही कर सकते. इसका उपयोग हम तथ्यों की जानकारी पाने के लिए कर सकते है. जैसे, “डिस्पेंसरी में कितनी दवाइयां आती है, पार्क और साफ़ सफाई में कितना खर्च हुआ, किसी सरकारी दफ्तर में कितनी नियुक्तियां हुई?” इसके अलावा “ सड़क बनाने के लिए कितने पैसे आये और कहा पर खर्च हुए?”
- सभी गवर्मेंट डिपार्टमेंट, प्रधानमंत्री, मुख्यमत्री, बिजली कंपनियां, बैंक, स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, राष्ट्रपति, पुलिस, बिजली कंपनियां, RTI act के अन्दर आते है.
- लोगो ने RTI के इस्तेमाल से कई ऐसी जानकारी हासिल की है जिससे उनकी रोजमर्रा की समस्याए सुलझ गई है.
- सरकार की सुरक्षा से सम्बंधित जानकारी या गोपनीय जानकारी इस अधिकार के अंतर्गत नही आती.
कैसे प्राप्त करे जानकारी?
- हर सरकारी विभाग में जन सुचना अधिकारी होता है. आप अपने आवेदन पत्र उसके पास जमा करवा सकते है.
- आवेदन पत्र का फॉर्मेट इन्टरनेट से डाउनलोड कर सकते है या फिर एक सफ़ेद कागज पर अपना आवेदन(एप्लीकेशन) लिख सकते है जिसमे जन सुचना अधिकारी आपकी मदद करेगा.
- RTI की एप्लीकेशन आप किसी भी भारतीय भाषा जैसे हिंदी, इंग्लिश या किसी भी स्थानीय भाषा में दे सकते हैं
- अपने आवेदन पत्र की फोटो कॉपी करवा कर जन सुचना अधिकारी से रिसीविंग जरुर ले ले.
- केंद्र सरकार के किसी भी विभाग से जानकारी प्राप्त करने के लिए ऑनलाइन आवेदन भी कर सकते है.
- आवेदन पत्र डालने के ३० दिन के अन्दर आपको जवाब मिल जाएगा
- यदि ऐसा नही होता है तो आप कार्ट में अपील कर सकते है
- किसी भी सरकारी विभाग से जानकारी प्राप्त करने के लिए आवेदन पत्र के साथ 10/- रूपये की फीस है
- ये फीस गरीबी रेखा से नीचे के लोगो के लिए माफ़ हैं।
कानूनी अधिकार कितने प्रकार के होते हैं?
साधारणतया वर्तमान समय के राज्यों में दो प्रकार के कानून होते हैं-साधारण कानून और संवैधानिक कानून । इन दोनों प्रकार के कानूनों में से संवैधानिक कानूनों द्वारा राज्य के हस्तक्षेप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता को रक्षित करने का कार्य किया जाता है।
मूल अधिकार (भारत)
मौलिक अधिकार भारत के संविधान के तीसरे भाग में वर्णित भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए वे अधिकार हैं जो सामान्य स्थिति में सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते हैं और जिनकी सुरक्षा का प्रहरी सर्वोच्च न्यायालय है। ये अधिकार सभी भारतीय नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं जैसे सभी भारत के लोग, भारतीय नागरिक के रूप में शान्ति के साथ समान रूप से जीवन व्यापन कर सकते हैं।
उद्भव एवं विकास
भारतीय संविधान मे जितने विस्तृत और व्यापक रूप से इन अधिकारों का उल्लेख किया गया है उतना संसार के किसी भी लिखित संघात्मक संविधान में नहीं किया गया है। मूल अधिकारों से सम्बन्धित उपबन्धों का समावेश आधुनिक लोकतान्त्रिक विचारों की प्रवृत्ति के अनुकूल ही है। सभी आधुनिक संविधानों में मूल अधिकारों का उल्लेख है। इसलिए संविधान के अध्याय 3 को भारत का अधिकार – पत्र (Magna carta) कहा जाता है। इस अधिकार-पत्र द्वारा ही अंग्रेजों ने सन् 1215 में इंग्लैण्ड के सम्राट जॉन से नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा प्राप्त की थी। यह अधिकार-पत्र मूल अधिकारों से सम्बन्धित प्रथम लिखित दस्तावेज है। इस दस्तावेज को मूल अधिकारों का जन्मदाता कहा जाता है। इसके पश्चात् समय-समय पर सम्राट् ने अनेक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की। अन्त में 1689 में बिल ऑफ राइट्स (Bill of Rights) नामक दस्तावेज लिखा गया जिसमें जनता को दिये गये सभी महत्वपूर्ण अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं को समाविष्ट किया गया। फ्रांस में सन् 1789 में जनता के मूल अधिकारों की एक पृथक् प्रलेख में घोषणा की गयी, जिसे मानव एवं नागरिकों के अधिकार घोषणा-पत्र के नाम से जाना जाता है। इसमें उन अधिकारों को प्राकृतिक अप्रतिदेय (inalienable) और मनुष्य के पवित्र अधिकारों के रूप में उल्लिखित किया गया है; यह दस्तावेज एक लम्बे और कठिन संघर्ष का परिणाम था।
भारतीय संविधान की जब रचना की जा रही थी तो इन अधिकारों के बारे में एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार थी। इन सबसे प्रेरणा लेकर संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों को संविधान में समाविष्ट किया। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं की गई है। संविधानों की परम्परा प्रारम्भ होने के पूर्व इन अधिकारों को प्राकृतिक और अप्रतिदेय अधिकार कहा जाता था, जिसके माध्यम से शासकों के ऊपर अंकुश रखने का प्रयास किया गया था।
मौलिक अधिकार
मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे परन्तु वर्तमान में छः ही मौलिक अधिकार हैं| संविधान के भाग ३ में सन्निहित अनुच्छेद १२ से ३५ मौलिक अधिकारों के संबंध में है जिसे सऺयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है । मौलिक अधिकार सरकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने से रोकने के साथ नागरिकों के अधिकारों की समाज द्वारा अतिक्रमण से रक्षा करने का दायित्व भी राज्य पर डालते हैं। संविधान द्वारा मूल रूप से सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
हालांकि, संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन द्वारा संविधान के तृतीय भाग से हटा दिया गया था ।
मौलिक अधिकार नागरिक और रहेवासी को राज्य की मनमानी या शोषित नीतियो और कार्यवाही के सामने रक्षण प्रदान करने के लिए दिये गए। संविधान के अनुच्छेद १२ मे राज्य की परिभाषा दी हुई है की “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं।
समता का अधिकार (समानता का अधिकार)
अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत निम्न अधिकार कानून के समक्ष समानता संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उद्धृत है।
- कानून के समक्ष समानता।
- जाति, लिंग, धर्म, तथा मूलवंश के आधार पर सार्वजनिक स्थानों पर कोई भेदभाव करना इस अनुच्छेद के द्वारा वर्जित है। लेकिन बच्चों एवं महिलाओं को विशेष संरक्षण का प्रावधान है।
- सार्वजनिक नियोजन में अवसर की समानता प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है परंतु अगर सरकार जरूरी समझे तो उन वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकती है जिनका राज्य की सेवा में प्रतिनिधित्व कम है।
- इस अनुच्छेद के द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया है अस्पृश्यता का आचरण कर्ता को ₹500 जुर्माना अथवा 6 महीने की कैद का प्रावधान है। यह प्रावधान भारतीय संसद अधिनियम 1955 द्वारा जोड़ा गया।
- इसके द्वारा बिट्रिश सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का अंत कर दिया गया। सिर्फ शिक्षा एवं रक्षा में उपाधि देने की परंपरा कायम रही।
स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद (19-22) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार प्राप्त हैं-
- वाक-स्वतंत्रता(बोलने की स्वतंत्रता) आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण। जमा होने, संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार।
- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण।
- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
- शिक्षा का अधिकार।
- कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
इनमें से कुछ अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
अनुच्छेद (23-24) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं-
- मानव और दुर्व्यापार और बालश्रम का प्रतिषेध।
- कारखानों आदि में 14 वर्ष तक बालकों के नियोजन का प्रतिषेध।
- किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक शोषण प्रतिषेध।
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद(25-28) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को प्राप्त है-
- अंत:करण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता। इसके अन्दर सिक्खों को किरपाण (तलवार) रखने कि आजादी प्राप्त है ।
- धार्मिक कार्यों के प्रबंध व आयोजन की स्वतंत्रता।
- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता।
- कुछ शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता।
संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार
अनुच्छेद(29-30) के अंतर्गत प्राप्त अधिकार-
- किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार।
- अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण।
- शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार।
कुछ विधियों की व्यावृत्ति
अनुच्छेद(32) के अनुसार कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया है-
- संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
- कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यीकरण।
- कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
डॉ॰ भीमराव अंबेडकर जी ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32-35) को ‘संविधान का हृदय और आत्मा’ की संज्ञा दी थी। सांवैधानिक उपचार के अधिकार के अन्दर ५ प्रकार के प्रावधान हैं-
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण : बंदी प्रत्यक्षीकरण द्वारा किसी भी गिरफ़्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी किया जाता है। यदि गिरफ़्तारी का तरीका या कारण ग़ैरकानूनी या संतोषजनक न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है।
- परमादेश : यह आदेश उन परिस्थितियों में जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
- निषेधाज्ञा : जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए ‘निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख’ जारी करती हैं।
- अधिकार पृच्छा : जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं है तब न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश’ जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
- उत्प्रेषण रिट : जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।
गिरफ्तारी (आरोपी के नजरिए से)
1. गिरफ्तारी वारण्ट क्या है?
वारंट एक अधिकारिक आदेश है जो मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाता है जिससे वह पुलिस को कुछ कार्य करने के बाबत् आदेश देती है। ‘गिरफ्तारी वारण्ट’ किसी को गिरफ्तार करने का मजिस्ट्रेट का आदेश है। कुछ परिस्थितियों में मजिस्ट्रेट किसी अन्य व्यक्ति को भी गिरफ्तारी वारण्ट निष्पादित करने के लिए अधिकृत कर सकती है।
2. क्या पुलिस को मुझे गिरफ्तार करने के लिए गिरफ्तारी वारंण्ट की आवश्यकता है?
नहीं, उन्हें वारण्ट की आवश्यकता नहीं होती। यदि उनको आप पर शक है कि आपने गंभीर अपराध कारित किया है। ऐसे अपराध जिनके लिए वारण्ट के बिना गिरफ्तारी की जा सकती है को संज्ञेय अपराध कहते हैं। जैसे कि हत्या, यौन अपराध, अम्लीय हमला, आग शुरू करना, दंगा फसाद करना इत्यादि। सामान्यतः मजिस्ट्रेट अपराध का चार्ज लेगा। क्योंकि इस प्रकार के अपराध में पुलिस द्वारा तुरन्त कार्यवाही करना आवश्यक होता है। पुलिस मजिस्ट्रेट की आज्ञा के बिना ही चार्ज ले सकती है।
असंज्ञेय अपराध कम गम्भीर अपराध होते हैं, जैसे कि परगमन, मानहानि इत्यादि। जब असंज्ञेय अपराध घटित हुआ हो, पुलिस को गिरफ्तारी करने के लिए मजिस्ट्रेट से आज्ञा प्राप्त करना अनिवार्य है। आम तौर पर क्योंकि यह अपराध निजी प्रकृति के होते हैं एवं पुलिस का तुरन्त कार्यवाही प्रारम्भ करना आवश्यक नहीं है मजिस्ट्रेट से आज्ञा लेने की सामान्य प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। इस सामान्य नियम का अपवाद है जब पुलिस आपको असंज्ञेय अपराध कारित करते हुए देख ले अथवा उनकी उपिंस्थति में असंज्ञेय अपराध कारित करने का आरोप लगा है एवं आप अपना नाम पता देने से मना कर दें। अथवा उन्हें गलत नाम पता बता दे, तो उस परिस्थिति में पुलिस द्वारा आपको गिरफ्तार किया जा सकता है।
3. पुलिस बिना वारण्ट कब गिरफ्तार कर सकती है?
उपरी तौर पर, दो परिस्थितियों में पुलिस आपको बिना वारण्ट गिरफ्तार कर सकती है। पहला, जब आप असंज्ञेय अपराध कारित करने के संदिग्ध हैं। दूसरा, जब पुलिस को यह आशंका हो कि आप संज्ञेय अपराध कारित करने वाले हैं।
- पहली श्रेणी में, विधि विशिष्ट परिस्थितियों का उल्लेख करती है जिनमें पुलिस आपको बिना वारण्ट गिरफ्तार कर सकती हैः–
- जब आप पुलिस आफिसर के सामने अपराध कारित करें (उदाहरण के लिए सार्वजनिक सभा में अथवा पुलिस स्टेशन में),
- जब पुलिस को एक विश्वसनीय सूचना मिली है या एक शिकायत हुई है कि आपने एक संज्ञेय अपराध कारित किया है,
- न्यायालय ने आपको ‘घोषित अपराधी’ करार किया है,
- यदि पुलिस ने आपके पास चोरी की सम्पत्ति बरामद की है अथवा आप संदिग्ध हैं,
- एक पुलिस आफिसर अपनी ड्यूटी करने का प्रयास कर रही है एवं आप उसमें बाधा उत्पन्न करें,
- यदि आप अभिरक्षा से फरार हो जायें,
- यदि आप सेना से भगोड़े होने के संदिग्ध हैं,
- यदि भारत के बाहर आप किसी अपराध में संदिग्ध हैं, एवं आप भारत वापिस लाये जाने के उत्तरदायी हैं, अथवा
- आप पूर्व में किसी अपराध के लिए दोषी घोषित किए गए हैं, एवं आप ‘रिहा अपराधी’ सम्बन्धी नियमों का उल्लंघन करते हैं।
गिरफ्तार होने की सम्भावना बहुत कम हो जाती है यदि आप किसी संज्ञेय अपराध के आरोपित हैं जिसमें सात वर्ष से कम कारावास का प्रावधान हो। पुलिस को आपके शामिल होने बाबत् विश्वसनीय सूचना होनी चाहिए। आगे, आप सिर्फ तभी गिरफ्तार किये जा सकते हैं यदि,
- आपके फरार होने की, साक्ष्य नष्ट करने की, या पीढ़ित एवं गवाहों पर प्रभाव डालने की सम्भावना है।
- आपके द्वारा एक और अपराध करने की सम्भावना है, अथवा
- पुलिस अनुसंधान में आपकी उपस्थिति आवश्यक है,
उच्चतम न्यायालय ने यह माना है कि ऐसे हर मामले में पुलिस को शुरूआत पुलिस थाने में ‘उपस्थिति बाबत् नोटिस’ से करनी चाहिए। यदि पुलिस को आपको गिरफ्तार करने की आवश्यकता प्रतीत होती है, उनके पास ऐसा करने के लिए यथोचित कारण होने चाहिए एवं इन कारणों का रिकार्ड करना आवश्यक है। पुलिस आफिसर को एक ‘गिरफ्तारी मीमो’ (फर्द गिरफ्तारी) गिरफ्तारी के समय बनाना होता है जिसमें उपरोक्त कारण एवं अन्य सूक्ष्मताओं का अंकन होता हैं एवं आप द्वारा यह हस्ताक्षरित होता है। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस को उपस्थिति नोटिस मामले की शुरूआत से दो हफ्ते के भीतर देने बाबत् निर्देशित किया है। यदि वह गिरफ्तारी नहीं कर रहे तो उन्हें इस बाबत् मजिस्ट्रेट को सूचित करना होता है।
4. क्या मैं गिरफ्तारी का विरोध कर सकती हूं यदि मुझे लगे कि मुझे गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए?
ऐसा विरोध किसी भी प्रकार से आपकी सहायता नहीं करता है। यह सिर्फ पुलिस को बल प्रयोग करने के लिए अधिकृत करता है। यदि आप गिरफ्तारी बाबत् अपनी अधिनता नहीं स्वीकारते हैं पुलिस आपको गिरफ्तार करने के लिए सम्पूर्ण आवश्यक साधनों का प्रयोग कर सकती है। हालांकि उनका यह कर्तव्य है कि वह आपकी मृत्यु न कारित करे, परन्तु वह घातक बल का प्रयोग ले सकते हैं यदि आप किसी ऐसे अपराध से आरोपित हैं जो मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास से दण्डनीय है।
5. क्या मुझे यह पता करने का अधिकार है कि मुझे गिरफ्तार क्यों किया जा रहा है एवं क्या मैं किसी को इस बाबत् सूचना दे सकती हूं?
हॉं। पुलिस का कर्तव्य है कि वह आपको गिरफ्तारी के कारणों की सूचना दे। उन्हें आपको आपके जमानत पर रिहा होने के अधिकार बाबत् भी बताना होता है। यदि उनके पास गिरफ्तारी वारण्ट है, उन्हेंं आपको वारण्ट जारी करने के प्रमुख कारणों बाबत् भी बताना होता है। यदि आप वारण्ट प्रत्यक्ष देखने का निवेदन करें, तो उनका कर्तव्य है कि वह आपको वारण्ट दिखाये।
आपका अधिकार है कि आप अपने गिरफ्तारी के सम्बन्ध में परिवार अथवा मित्र को सूचना दें। पुलिस आपको पुलिस स्टेशन ले जाते ही एवं इस बारे में संबंधित डायरी में प्रविष्टि करते ही इस अधिकार बाबत् सूचित करेगी।
6. क्या पुलिस मुझे गिरफ्तार करते वक्त मेरी तलाशी ले सकती है?
हॉं, ऐसे में पुलिस आपकी तलाशी ले सकती हैं एवं जो कुछ भी बरामद हो उसे सुरक्षित अपनी अभिरक्षा में रख सकती है। यदि आप महिला हैं तो आपकी तलाशी केवल एक महिला पुलिस कर्मी द्वारा ही ली जा सकती है। पुलिस को आपको एक ‘जामा तलाशी मीमो’ देना होता है जो उनके द्वारा अभिरक्षा में ली गई सम्पूर्ण वस्तुओं की एक सूची है। मजिस्ट्रेट की आज्ञा पश्चात् वह आपके फिंगर प्रिंट भी ले सकते हैं।
7. क्या मेरे गिरफ्तार होते हुए मेरा डाक्टर अथवा चिकित्सक अधिकारी द्वारा चिकित्सीय परिक्षण हो सकता है?
हॉं, ऐसा करने के दो उद्देश्य हो सकते हैंः-
- पहला यह निर्धारित करना कि क्या अभियुक्त के रूप में आपको चोटिल किया गया है या आप पर हिंसा कारित हुई है। आप डॉक्टर द्वारा निर्मित रिपोर्ट की एक प्रति मांग सकते हैं। यदि आप महिला है तो आपका चिकित्सीय परीक्षण महिला डॉक्टर द्वारा ही किया जा सकता है।
- यदि पुलिस यह सोचे की आपका चिकित्सीय परीक्षण यह साबित कर सकता है कि आपने अपराध कारित किया है तो वह डाक्टर को आपका परीक्षण करने का निवेदन कर सकते हैं। यदि इसमें आप डाक्टर से सहयोग नहीं करते तो पुलिस आप पर यथोचित बल का प्रयोग कर सकती है।
8. पुलिस मुझे कितने समय तक अभिरक्षा में रख सकती है?
गिरफ्तारी के पश्चात् पुलिस का आपको जितनी जल्दी सम्भावित हो उतनी जल्दी मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना आवश्यक है। वह आपको 24 घण्टे से ज्यादा गिरफ्तारी में नहीं रख सकते – इसमें न्यायालय पहुंचने की यात्रा की समयावधि शामिल नहीं है। पुलिस को मजिस्ट्रेट को केस डायरी में की गई प्रविष्टियों की एक प्रति भी देनी होगी। ‘केस डायरी’ एक प्रतिदिन की डायरी है जिसमें अनुसंधान सम्बन्धी सारी सूक्ष्मताओं का अंकन होता है। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस को निर्देशित किया है कि वह मजिस्ट्रेट को एक सूची उपलब्ध कराये जिसमें आपको गिरफ्तार करने के कारणों का उल्लेख हो एवं आपकी गिरफ्तारी सम्बन्धी सम्पूर्ण दस्तावेज, गिरफ्तारी मीमो सहित संलग्न हो।
मजिस्ट्रेट के समक्ष आपको प्रस्तुत करने के पश्चात् मजिस्ट्रेट, आपको या तो उन्मोचित कर सकता है अथवा आपको जमानत का लाभ प्रदान कर सकता है। आपके अधिवक्ता को आपकी रिहायी की मांग रखनी चाहिए यदि पुलिस को केवल उपस्थिति नोटिस देने की आवश्यकता थी एवं आपकी वास्तविक गिरफ़्तारी की जरूरत नहीं थी। 24 घण्टे के बाद पुलिस आपको सिर्फ मजिस्ट्रेट की आज्ञा से हिरासत में रख सकती है। वह पुलिस अथवा न्यायिक अभिरक्षा की मांग कर सकते हैं। पुलिस अभिरक्षा गिरफ्तारी के पश्चात् सिर्फ 15 दिन तक चल सकती है। इसका मतलब यह है कि आप पुलिस थाने स्थित ‘लॉक अप’ में सिर्फ 14 और दिनों के लिए रखे जा सकते हैं।
यदि पुलिस आरोप पत्र पेश नहीं कर पाई है, तो जो अपराध आरोपित है उन पर यह निर्भर करता है कि आप न्यायिक अभिरक्षा में 60 अथवा 90 दिवस तक रखे जा सकते हैंः-
आप एक बार में 14 दिवस से अधिक समय के लिए न्यायिक अभिरक्षा में भी नहीं भेजे जा सकते हैं। हर 14 दिवसीय अवधि के पश्चात् आपको मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। 60 या 90 दिन की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् जमानत पर रिहा होना आपका अधिकार है।
9. मेरे अन्य क्या अधिकार है जब मैं गिरफ्तार किया जा रहा हूं?
- पुलिस का अभिरक्षा में रहते हुए आपका स्वास्थ्य एवं सुरक्षा बाबत् यथोचित ध्यान रखने का कर्तव्य है।
- पुलिस का यह कर्तव्य है कि अपराध ‘स्वीकारोक्ति बयान’ लेने के लिए वह आपको धमकी देना, डराना अथवा दबाब बनाने के कदम ना उठायें। पुलिस को दोष स्वीकारने के लिए अथवा सूचना के लिए आपको चोटिल करना या अत्याचार कारित करने के लिए दण्डित किया जा सकता है। उन्हें किसी महिला से लॉक अप में दुष्कर्म करने पर भी सख्त दण्ड से दण्डित किया जा सकता है। यदि आप अत्याचार सह रहे हैं तो कृपया अपने अधिवक्ता को इस बाबत् सूचना दें। आप स्वयं भी इस बारे में मजिस्ट्रेट को बता सकते हैं जब आप उसके समक्ष प्रस्तुत किये जायें।
10. मुझे गिरफ्तार करते हुए पुलिस को और कौनसे कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है?
- पुलिस को बिना कारण आपका प्रतिरोध नहीं करना चाहिए- उन्हें सिर्फ यह सुनिश्चित करना होता है कि आप अभिरक्षा से फरार न हो जायें।
- पुलिस को सही एवं दृष्टिगोचर नामपट्ट पहनना होता है जिससे आपको पता रहे कि आपको किस पुलिसकर्मी द्वारा गिरफ्तार किया जा रहा है।
- पुलिस को एक ‘गिरफ्तारी मीमो’ बनाना होता है जिसे आप अथवा कोई सम्बन्धी द्वारा अथवा किसी स्थानीय प्रतिष्ठावान व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाता है। गिरफ्तारी मीमो में गिरफ्तारी के स्थान एवं समय का अंकन होना चाहिए। एवं न्यायालय के समक्ष जब आप पहली बार प्रस्तुत किये गये हों तब उस मीमों को मजिस्ट्रेट को सौंपना चाहिए।
- पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गिरफ्तारशुदा व्यक्तियों का एवं उनको गिरफ्तार करने वाले पुलिसकर्मियों का नाम जिले के नियन्त्रण कक्ष (कन्ट्रोल रूम) के नोटिस बोर्ड पर प्रदर्शित होना चाहिए।
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
क़ानून एवं न्याय मंत्रालय, भारत सरकार
क़ानून एवं न्याय मंत्रालय भारत सरकार का एक प्रमुख मंत्रालय है।
विधि और न्याय मंत्रालय भारत सरकार का सबसे पुराना अंग है। इसकी स्थापना वर्ष 1833 में उस समय हुई थी जब ब्रिटिश संसद द्वारा चार्टर अधिनियम, 1833 लागू किया गया था। उक्त अधिनियम ने पहली बार विधायी शक्ति को किसी एकल प्राधिकारी, अर्थात गवर्नर जनरल की काउंसिल में निहित किया था। इस प्राधिकार के नाते और इंडियन काउंसिल अधिनियम, 1861 की धारा 22 के अधीन उसमें निहित प्राधिकार के द्वारा गवर्नर जनरल की काउंसिल ने सन् 1834 से 1920 तक देश के लिए कानून बनाए । भारत सरकार अधिनियम, 1919 के लागू होने के बाद विधायी शक्ति का प्रयोग उसके अधीन गठित भारत के विधानमंडल द्वारा किया गया। भारत सरकार अधिनियम, 1919 के बाद भारत सरकार अधिनियम, 1935 आया। भारतीय । स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के पारित होने के साथ भारत एक डोमिनियन बन गया और डोमिनियन विधानमंडल ने भारत (अनंतिम संविधान) आदेश, 1947 द्वारा यथा अंगीकृत भारत सरकार अधिनियम, 1935 की धारा 100 के उपबंधों के अधीन वर्ष 1947 से 1949 तक कानून बनाए। 26 जनवरी, 1950 से भारत का संविधान लागू होने के बाद विधायी शक्ति संसद में निहित है।
मन्त्रालय का संगठन
विधि और न्याय मंत्रालय में विधायी विभाग, विधि कार्य विभाग और न्याय विभाग सम्मिललित हैं। विधि कार्य विभाग केन्द्रीय सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों को विधिक सलाह देता है जबकि विधायी विभाग केन्द्रीय सरकार के प्रधान विधान के प्रारूपण का कार्य करता है।
लक्ष्य
इस मंत्रालय का लक्ष्य सरकार को दक्ष और उत्तरदायी वादकारी बनाना है। विधि शिक्षा, विधि व्यवसाय और भारतीय विधि सेवा सहित विधिक सेवाओं में विस्तार, समावेशन और उत्कृष्टता लाने के लिए भारतीय विधि व्यवस्था में सुधार करना। विधिक पेशेवरों के सृजन की एक प्रणाली विकसित करना ताकि वे न केवल भारत के बल्कि विश्व के मुकदमा और गैर-मुकदमा क्षेत्रों की भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकें, तथा उनके सामाजिक उत्तरदायित्व और एक दृढ़ व्यायवसायिक आचार नीति पर ध्यान केंद्रित करें। १२वीं पंचवर्षीय योजना की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मुकदमों की भारी संख्या (3.3 करोड़), उसके फलस्वररूप राजकोष पर और मानवशक्ति सहित संसाधनों पर बढ़ते हुए बोझ जैसी बाधाओं को देखते हुए तथा सरकारी प्राधिकारियों को व्यापक विवेकाधीन शक्तियां प्रदान करने की आवश्यकता को महसूस करते इसका लक्ष्य प्रशासनिक शक्ति के सुव्यवस्थित प्रवाह, विरोध के प्रबंधन, विधि का शासन लागू करने और सरकार के विभिन्न स्कंधों द्वारा निर्धारित किए गए उद्देश्यों की प्राप्ति में मदद देने के लिए एक उचित विधिक ढांचा तैयार करना है।
उद्देश्य
- मंत्रालयों और विभागों द्वारा भेजे गए मामलों पर विधिक सलाह/राय देकर और उनके विधायी प्रस्तावों की जांच करके उनके कार्य संचालन में सहायता देना और सुशासन को बढ़ाना।
- भारतीय विधि सेवा में सुधार करके उसे अधिक दक्ष, अनुक्रियाशील और वैश्विकक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाना।
- केन्द्रीय अभिकरण अनुभाग के लिए एक वृहद ई-शासन प्रणाली विकसित करना और सूचना प्रौद्योगिकी के आधार पर विधि कार्य विभाग को नया रूप देना।
- मुकदमों को कम करना और विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों द्वारा विवादों के समाधान को प्रोत्साहित करना ।
- विधि व्यवसाय में उत्कृष्टता को बढ़ावा देना और विधि शिक्षा के क्षेत्र में नवीन युग के प्रवर्तन की रूपरेखा तैयार करना।
- विधिक सुधार करना।
- इस विभाग के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले अधिनियमों, अर्थात अधिवक्ता अधिनियम, 1961, नोटरी अधिनियम, 1952, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 और अधिवक्ता कल्याण निधि अधिनियम, 2001 को प्रभावी रूप से लागू करना।
भारतीय न्यायपालिका (Indian Judiciary)- आम कानून (कॉमन लॉ) पर आधारित प्रणाली है। यह प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के समय बनाई थी। इस प्रणाली को ‘आम कानून व्यवस्था’ के नाम से जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं।
१५ अगस्त 1947 को स्वतंत्र होने के बाद २६ जनवरी १९५० से भारतीय संविधान लागू हुआ। इस संविधान के माध्यम से ब्रिटिश न्यायिक समिति के स्थान पर नयी न्यायिक संरचना का गठन हुआ था। इसके अनुसार, भारत में कई स्तर के तथा विभिन्न प्रकार के न्यायालय हैं। भारत का शीर्ष न्यायालय नई दिल्ली स्थित सर्वोच्च न्यायालय है जिसके मुख्य न्यायधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। नीचे विभिन्न राज्यों में उच्च न्यायालय हैं। उच्च न्यायालय के नीचे जिला न्यायालय और उसके अधीनस्थ न्यायालय हैं जिन्हें ‘निचली अदालत’ कहा जाता है।
भारत मे चार महानगरों में अलग अलग उच्चतम न्यायालय बनाने पर विचार किया जा रहा है क्योंकि दिल्ली देश के अनेक भौगोलिक भागों से बहुत दूर है तथा उच्चतम न्यायालय में कार्य का भार ज्यादा है।
सर्वोच्च न्यायालय
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका का शीर्ष सर्वोच्च न्यायालय है, जिसका प्रधान प्रधान न्यायाधीश होता है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह राष्ट्रपति करता है।
उच्च न्यायालय राज्य के न्यायिक प्रशासन का एक प्रमुख होता है। भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें से तीन के कार्यक्षेत्र एक राज्य से ज्यादा हैं। दिल्ली एकमात्र ऐसा केंद्रशासित प्रदेश है जिसके पास उच्च न्यायालय है। अन्य सात केंद्र शासित प्रदेश विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों के तहत आते हैं। हर उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और कई न्यायाधीश होते हैं। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालयों के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्त प्रक्रिया वही है सिवा इस बात के कि न्यायाधीशों के नियुक्ति की सिफारिश संबद्ध उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करते हैं। उच्च न्यायालयों के न्यायधीश 62 वर्ष की उम्र तक अपने पद पर रहते हैं। न्यायाधीश बनने की अर्हता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिए, देश में किसी न्यायिक पद पर दस वर्ष का अनुभव होना चाहिए या वह किसी उच्च न्यायालय या इस श्रेणी की दो अदालतों में इतने समय तक वकील के रूप में प्रैक्टिस कर चुका हो।
प्रत्येक उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने कि लिए या किसी अन्य उद्देश्य से अपने कार्यक्षेत्र के अंतर्गत किसी व्यक्ति या किसी प्राधिकार या सरकार के लिए निर्दश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। यह रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण के रूप में भी हो सकता है। कोई भी उच्च न्यायालय अपने इस अधिकार का उपयोग उस मामले या घटना में भी कर सकता है जो उसके कार्यक्षेत्र में घटित हुई हो, लेकिन उसमें संलिप्त व्यक्ति या सरकारी प्राधिकरण उस क्षेत्र के बाहर के हों। प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने कार्यक्षेत्र की सभी अधीनस्थ अदालतों के अधीक्षण का अधिकार है। यह अधीनस्थ अदालतों से जवाब तलब कर सकता है और सामान्य कानून बनाने तथा अदालती कार्यवाही के लिए प्रारूप तय करने और मुकदमों और लेखा प्रविष्टियों के तौर-तरीके के बारे में निर्देश जारी कर सकता है।
विभिन्न उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों और अतिरिक्त न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 678 है लेकिन 26 जून 2006 की स्थिति के अनुसार इनमें से 587 न्यायाधीश अपने-अपने पद पर कार्यरत थे।
दहेज प्रथा
दहेज का अर्थ है जो सम्पत्ति, विवाह के समय वधू के परिवार की तरफ़ से वर को दी जाती है। दहेज को उर्दू में जहेज़ कहते हैं। यूरोप, भारत, अफ्रीका और दुनिया के अन्य भागों में दहेज प्रथा का लंबा इतिहास है। भारत में इसे दहेज, हुँडा या वर-दक्षिणा के नाम से भी जाना जाता है तथा वधू के परिवार द्वारा नक़द या वस्तुओं के रूप में यह वर के परिवार को वधू के साथ दिया जाता है। आज के आधुनिक समय में भी दहेज़ प्रथा नाम की बुराई हर जगह फैली हुई है। पिछड़े भारतीय समाज में दहेज़ प्रथा अभी भी विकराल रूप में है।
हत्यायें
देश में औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज संबंधी कारणों से मौत का शिकार होती है और वर्ष 2007 से 2012 के बीच इस प्रकार के मामलों में काफी वृद्धि देखी गई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि विभिन् राज्यों से वर्ष 2012 में दहेज हत्या के 8,233 मामले सामने आए। आंकड़ों का औसत बताता है कि प्रत्येक घंटे में एक महिला दहेज की बलि चढ़ रही है।
कानून
- दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के अनुसार दहेज लेने, देने या इसके लेन-देन में सहयोग करने पर 5 वर्ष की कैद और 15,000 रुपए के जुर्माने का प्रावधान है।
- दहेज के लिए उत्पीड़न करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए जो कि पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा सम्पत्ति अथवा कीमती वस्तुओं के लिए अवैधानिक मांग के मामले से संबंधित है, के अन्तर्गत 3 साल की कैद और जुर्माना हो सकता है।
- धारा 406 के अन्तर्गत लड़की के पति और ससुराल वालों के लिए 3 साल की कैद अथवा जुर्माना या दोनों, यदि वे लड़की के स्त्रीधन को उसे सौंपने से मना करते हैं।
- यदि किसी लड़की की विवाह के सात साल के भीतर असामान्य परिस्थितियों में मौत होती है और यह साबित कर दिया जाता है कि मौत से पहले उसे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता था, तो भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी के अन्तर्गत लड़की के पति और रिश्तेदारों को कम से कम सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है।
यह आर्टिकल पूरी तरह मेरे द्वारा नहीं लिखा गया है, इसे हमने अलग अलग प्लेटफोर्म से देखकर लिखा है।
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